अंग्रेजी का बढ़ता प्रचलन, दूर कर रहा हमें मातृभाषा से

The increasing prevalence of English is taking us away from our mother tongue.

क्या मातृभाषा को अनदेखा करना सही है?

बात शुरू करता हूँ अंग्रेजी के बढ़ते प्रचलन से। आज सभी अंग्रेजी के पीछे भाग रहे हैं। हमारे देश में अंग्रेजी का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। आजकल शिक्षा व्यवस्था खासतौर पर अंग्रेजी विद्यालयों में हिंदी का कोई विशेष महत्व नहीं है। तो क्षेत्रीय भाषा की बात ही कौन करे? इसकी वजह से बच्चे हिंदी की अहमियत को अच्छे से समझ नहीं पाते। इसी कारण हिंदी भाषा हमारे समाज से धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। दूसरा बड़ा कारण, जब कोई युवा नौकरी के लिए जाता है तो उसके सामने सबसे पहले अंग्रेजी बोलने की शर्त रख दी जाती है। इससे युवा पीढ़ी में गलत संदेश जाता है। हम पचास भाषाएँ सीखें, अच्छी बात है, लेकिन क्या मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा को अनदेखा करना सही है? 

शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। उच्च स्तर की किताबें अंग्रेजी में हैं। हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द भण्डार को बढ़ाने के लिए कोई काम नहीं हो रहा है। साक्षात्कार, प्रतियोगी परीक्षाएँ आपको अंग्रेजी में देना है, तो हिंदी या बाकि भाषाओं का महत्व ही क्या है?

अपने ही देश में, अपनी ही भाषाओं की इज्जत नहीं हैं। मैंने देखें हैं वो निराश चेहरे, जो कितने भी योग्य क्यों न हों, अंग्रेजी न आने या ठीक से न बोल पाने की वजह से अवसादग्रस्त हैं। और ऊपर से इसे उच्च वर्ग की भाषा मान लिया गया है। होटलों में, कार्यालयों में, जहाँ कहीं भी आप जाओ, यदि अंग्रेजी में बोले, तो आपको स्पेशल ट्रीटमेंट मिलेगा। क्या यह गुलामी की मानसिकता का प्रतीक नहीं?

ऐसा लगता है कि आज आर्थिक और तकनीकी विकास के साथ-साथ हिंदी भाषा अपने महत्व को खोती चली जा रही है। आज हम सफलता पाने के लिए अंग्रेजी भाषा सीखना और बोलना चाहते हैं। हर माता-पिता यही चाह रहे हैं कि हमारे बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढ़कर अंग्रेजी में बात करें। एक हद तक ठीक है, लेकिन इस बात को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है कि अंग्रेजी हम सभी को मानसिक रूप से कमजोर कर रही है। अंग्रेजी का दुष्परिणाम भी दिन प्रतिदिन देखने को मिल ही रहा है। आजकल के बच्चों को अपनी मातृभाषा ही बोलते नहीं आ रही, और लिखना तो फिर बहुत दूर की बात है। प्रश्न यह है कि इस स्थिति में वह अपने ही देश में अपने ही देश की भाषा को बढ़ावा देने में कैसे योगदान देगा? 

यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि जिस ईमानदारी से फ्रांस में फ्रेंच भाषा को प्राथमिकता दी जाती है या चीन में चीनी भाषा को, उस ईमानदारी से भारत देश में हिंदी का वह मूल नहीं है। यही कटु सत्य है, जिसके साथ विशेष रूप से नई पीढ़ी जी रही है। हिंदी के नाम से तमाम तरह के आन्दोलन चलाने, भावुक वक्तव्य प्रस्तुत करने और हिंदी में स्तुति गाने के बजाए एक हिंदी भाषी को हिंदी सीखने पर ध्यान देना चाहिए। समझना चाहिए कि हिंदी की परिभाषा सिर्फ भावना तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यवहार है। 

बोलचाल की भाषा में अछूत प्रथा मानना हमारी राष्ट्र भाषा पर कई सवाल दागता है। अंग्रेजी भाषा को अनिवार्य करने के बजाए हिंदी को अनिवार्य करने पर ध्यान देने की बहुत जरुरत है, क्योंकि हिंदी भाषा अनिवार्य होगी, तो न सिर्फ बोलने, बल्कि लिखने की आदत भी छात्रों में आएगी, और अभी की तुलना में वे अपने हिंदी कौशल को प्रत्यक्ष रूप से बढ़ा सकेंगे।

Share