फिर एक धमाका और तहस नहस हुईं कई ज़िंदगियाँ

Again an explosion and many lives were destroyed.

जब किसी युद्ध से बम ब्लास्ट की खबर सामने आये तो ये मालूम ही रहता है कि क़सूरवार और बेक़सूरवार दोनों ही तरह के लोगों की जान जा सकती है लेकिन ये क्या! एक नया शोर अचानक कानों में सुनाई दे रहा है कि हरदा जैसे छोटे से जिले में पटाख़ा फैक्ट्री में ब्लास्ट हुआ। ब्लास्ट भी ऐसा कि 20 किलोमीटर दूर तक जिसकी थरथराहट महसूस की गई, लेकिन कमाल की बात है कि क्या फैक्ट्री रातों-रात अचानक आ गयी थी? या अब तक किसी को कोई खबर नहीं थी कि एक पटाख़ा फैक्ट्री छोटे से जिले ‘हरदा’ में बस्ती वाले इलाके में मौजूद है? 

कैसे संभव है कि इस बात का इल्म तब तक किसी को नहीं था जब तक कुछ लोगों की जान नहीं चली गई, जबकि यह फैक्ट्री वहीं के कुछ लोगों की आय का ज़रिया भी रही होगी। तो क्या वे लोग भी अनजान रहे होंगे? बहरहाल अब तक मलबा समेटते-समेटते कई चीथड़ों को भी समेटा जा चुका होगा। लेकिन जो गुहार अभी सुनने को मिल रही है, वह तब क्यों नहीं मिली जब ये फैक्ट्री दिन-रात कार्यरत थी। अब रस्मन दौरे व हाज़री पेश होगी। हर्जाने के तौर पर चंद हज़ार या लाख रूपये देने की नई-नई घोषणाएँ भी जारी हो जाएँगी। कितने ही पुराने इसी तरह के केसेस हैं जो आज भी बंद फाइल्स में दबे पड़े हैं। बंद हैं वो केसेस, उन ज़िन्दगियों की तरह, जिनकी जान बेकार में ही मिट्टी के मोल मिट गयी। 

अब सोचने का मुद्दा एक ये भी है कि क्या नुक़सान सिर्फ और सिर्फ पटाख़ा फैक्ट्री का हुआ? या क्या सिर्फ ये एक माली नुक़सान था? कई बेगुनाह जानों का जो नुक़सान हुआ है वो किस फाइल में दर्ज हो के बंद होने वाला है? इस तरह के हादसे, कई हँसते-खेलते जनजीवन को बर्बाद कर देते हैं। फैक्ट्री से सटे मकानों का नुक़सान वहीं कहीं राख में मिला पड़ा है। 2014 में या शायद उससे भी पहले इसी फैक्ट्री में छोटा धमाका हुआ था, जिसके चलते फैक्ट्री की शिकायत की गई, लेकिन ये फैक्ट्री बंद नहीं हुई। तब कोई खासी सुनवाई नहीं हुई, क्यों नहीं हुई..? क्या सरकार इंतज़ार में थी इस तरह के बड़े धमाके के, जिसमें कई ज़िंदगियाँ राख़ हो जाये, तब एक्शन लिया जाए, फिर दौरा किया जाए और चंद लाख रुपयों से इस तरह तबाह हुई ज़िन्दगियों का मुआवज़ा दे कर पाने आप को जिम्मेदार बताए। 

हादसे के बाद अब कई-कई तरह के विरोध हो रहे हैं। पटाखों की माला पहन कर विरोध अब क्यों? दर्जनों लाशों के बोझ का हार पहले ही इस हादसे ने हम सब के गले में डाल दिया है।

इंदौर की बात करें, तो पटाख़ों की दुकानें रिहाइशी इलाकों से हटा दी गयी हैं। तो क्यों..? अब भी आस-पास के किसी कोने से इस तरह के ब्लास्ट की खबरें आती रहने वाली हैं। कई बार इस तरह के हादसे होते हैं, फिर ना जाने कहाँ दफ़न हो जाते हैं? बारूद के ढेर पर कार्यरत तमाम लोगों की जान तब भी खतरे में थी और अब भी खतरे में ही हैं। ऐसे पटाखों और बारूद की फैक्ट्रियों को रिहाइशी इलाकों से हटाने की माँग तब तब उठती है, जब ऐसी कोई घटना कई ज़िन्दगियों की बलि लेकर ‘कांड’ का रूप धारण कर लेती है। फिर जागरूक होकर कई वादे-इरादे किये जाते हैं, तफ्तीशें होती हैं और कुछ दिनों में सब वापस से वैसा का वैसा चलने लगता है। थोड़ा बहुत ये भी गौर किया जाना चाहिए, है ना..? मुद्दा गरमा-गरम होगा तो ही चिंता का विषय है, लेकिन उसके बाद का क्या?

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