आज हमारा समाज महिलाओं और पुरुषों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता की वकालत कर रहा है। लेकिन यह निराशाजनक तथ्य है और मुझे इस विचारधारा से बहुत नफरत है। अब बेवजह तो कुछ भी नहीं होता, तो जाहिर है इसकी भी वजह होगी और है भी।
इंसान का उसके जन्म के समय से ही जेंडर निर्धारित कर दिया जाता है। मेल या फीमेल के रूप में। और तो और समाज ने इसे परिभाषित करने के लिए कुछ नियम भी बनाए हैं कि महिला कौन है ? एक महिला से क्या-क्या अपेक्षाएँ की जानी चाहिए? यही बात पुरुषों के साथ भी लागू होती है। महिलाओं को लगातार यह बताया जाता है कि वे पुरुषों के बराबर नहीं हैं। अक्सर उनकी शारीरिक बनावट के लिए उनकी आलोचना की जाती है और माना जाता है कि वे पुरुषों के अधीन हैं। जबकि पुरुष अपनी भावनाओं को आँसुओं के माध्यम से व्यक्त नहीं कर सकते, क्योंकि पुरुष मजबूत होते हैं, बल्कि केवल क्रोध और स्वामित्व के माध्यम से ही खुद को व्यक्त कर सकते हैं। जहाँ महिलाओं को उनके शरीर के आधार पर आँका जाता है, वहीं दूसरी तरफ पुरुषों को उनकी संपत्ति, नौकरी और समाज में स्थिति के आधार पर महत्व दिया जाता है।
जब आप व्यक्तिगत तौर पर उन घटनाओं से गुजरते हैं जहाँ आपको यह पता चलता है कि कुछ भी समान नहीं है। और इस बात से मैं काफी ताल्लुक भी रखता हूँ। एक घटना का जिक्र करते चलता हूँ, मेरी एक महिला मित्र हैं, जो सिंगल पैरेंट हैं। जब उनकी बेटी एक साल की थी, तभी उनके पति गुजर गए। बड़ी ही कुशलता से उन्होंने अपनी बेटी की परवरिश की। घर से लेकर दफ्तर तक सब कुछ अकेले ही अच्छे से संभाला। उन्हीं देखकर यही लगता कि अकेले रहकर भी ये बच्ची के साथ घर दफ्तर संभाल सकती हैं। फिर इन्हें पार्टनर की क्या जरूरत?
एक बार उनकी फ्लाइट थी रात के 2 बजे, जो कि बहुत ही ऑड टाइम था। वे फ्लाइट पकड़ने निकली ही थीं कि रास्ते में कुछ लोग उन्हें परेशान करने लगे, जिसके कारण वे वापिस अपने घर लौट आईं और उनकी फ्लाइट छूट गई। फिर दूसरी रात उन्होंने मुझे कॉल किया और फ्लाइट पकड़ने, साथ चलने के लिए बोला। मैं उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने गया। उन्होंने मुझसे कहा कि अभी-भी सब बराबर नहीं है अतुल, क्योंकि अभी-भी ऐसे ऑड टाइम में महिला घर से बाहर कहाँ अकेले निकल सकती है?
सबसे निराशाजनक बात तो यह है कि फेमिनिज़्म को बढ़ावा देने के लिए महिलाओं ने समाज में जबरजस्ती का ढिंढोरा पीटा है। कुछ संस्कृतियाँ महिलाओं के प्रति सहानुभूति रखती हैं, क्योंकि उन्हें मासिक धर्म के दौरान दर्द होता है, शादी होने पर उन्हें घर छोड़ना पड़ता है, बच्चे को जन्म देने के लिए उन्हें एक कठिन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है आदि। इन सबके बावजूद भी महिलाएँ एक इंसान के रूप में सम्मान की पात्र हैं। यदि समानता की अवधारणा को कुछ देर के लिए अलग कर दिया जाए, तो समाज को यह मानना होगा कि पुरुष की अपनी जगह है और महिला की अपनी। कुछ काम आज भी ऐसे हैं और रहेंगे, जो या तो महिला ही कर सकती है या तो पुरुष ही।
हमें समानता की दौड़ का हिस्सा बनना ही क्यों है? प्रकृति और पुरुष दोनों की ही जरूरत है। यहाँ एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलना, तो क्यों एक को दूसरे से श्रेष्ठ बनना है? प्रकृति ने जब महिला और पुरुष को एक दूसरे का पूरक बनाया है, तो यही पूरक वाली बात आज दोनों के बदले हुए स्वरुप में भी लागू होनी चाहिए या नहीं? आज जरुरत है कि औरतें अपना ‘नारीवाद’ छोड़कर घर और बाहर दोनों जगहों की काम की जिम्मेदारी लें और साथ ही पुरुष भी ‘हम श्रेष्ठ हैं’, इस बात को परे रखकर घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी समान रूप से लेना सीखें। समाज अजनबियों का संगठन नहीं है, हम सभी इस समाज का हिस्सा हैं। यदि सच में हमें मौजूदा समाज में बदलाव लाना है, तो हमें अपनी धारणाएँ भी बदलनी होंगी।