अच्छी परवरिश पर पैसा भारी

money is more important than good upbringing

अपनी खुशियाँ न्यौंछावर करके एक पिता अपने बेटे को करोड़ों रुपए कमाने के लायक बनाता है, और इस काबिल होने के बाद वही बेटा उस पिता से कौड़ियों की भाँति व्यवहार करने लगता है। 

यह एक ऐसा कटु सत्य है, जिससे कलयुग और विशेष रूप से इस मॉडर्न ज़माने का कोई भी व्यक्ति मुकर नहीं सकता। इससे पहले के दो युग, यानि त्रेता और द्वापर के ऐसे अनगिनत किस्सों का हमारे ग्रन्थ और पुराण शंखनाद करते हैं, जो एक पिता और पुत्र के पवित्र रिश्ते का बखान करते हुए थकते नहीं हैं। ये ग्रन्थ और पुराण इसलिए लिखे गए हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ इनसे सीख सकें कि हमारे देश की संस्कृति कितनी अपार और विराट है, और रिश्तों एवं जीवन का आखिर क्या मूल्य होता है।

श्रवण कुमार कावड़ में बैठाकर अपने नेत्रहीन माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने ले गए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने अपने पिता के वादे को पूरा करने के लिए अपना सुखद जीवन और अगले ही दिन मिलने वाला राज-पाट त्याग कर 14 वर्षों के लिए वनवास अपना लिया। अपने पिता वासुदेव को न्याय दिलाने के लिए श्री कृष्ण अपने जीवन से हर कदम पर अपनी सबसे कीमती वस्तुएँ और उनके दिल के सबसे समीप लोग एक-एक करके पीछे छोड़ते चले गए, वह भी चेहरे पर बिना किसी शिकन के।

ऐसे विभिन्न जीवंत उदाहरणों से प्रेरणा लेकर कलयुग के कई पुत्र भी अपने अपने पिता के लिए अपना सर्वस्व न्यौंछावर करने तलक से पीछे नहीं हटे। माता-पिता का सम्मान, उनसे आँखें नीचे करके बात करने की आदत; माता-पिता ने जो कह दिया, पत्थर की लकीर; अपने पिता के लिए कुछ कर गुजर जाने की ललक; ये सारे गुण पुरानी पीढ़ियों में बेशक गहनता से देखने को मिलती थी, लेकिन अब यह सब कुछ यादों, किताबों और किस्से-कहानियों में ही सीमित होकर रह गया है। आज के समय में इनसे इंसान का कोई नाता नहीं, क्योंकि आधुनिकता का बवंडर कुछ ऐसा चल पड़ा है कि कलयुग के कुछ चरणों के बाद ही इसके दयनीय और भयावह परिणाम साफ-साफ दिखने लगे हैं। 

अब कलयुगी बेटे अपने पिता के मान-सम्मान को ठेस पहुँचाने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते हैं, क्योंकि उनके अपने मान-सम्मान से अधिक उनकी नजरों में कुछ भी नहीं है, पिता भी नहीं.. मिलावट के इस दौर में अब रिश्तों में भी मिलावट होने लगी है। आज के समय में एक-एक वृद्धाश्रम सैकड़ों बेसहारा बुजुर्गों से भरे पड़े हैं। कुछ ही होंगे, जिनका इस दुनिया में कोई नहीं है, लेकिन एक बड़ी संख्या ऐसे बुजुर्गों की है, जिनके बाल-बच्चे तो हैं ही, साथ ही वे काफी सक्षम परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। इंटरनेट पर ऐसे कई कलयुगी बेटे मिल जाएँगे, जिनके पास करोड़ों की प्रॉपर्टी है, रहने के लिए एक से ज्यादा घर हैं, वे करोड़ों रुपयों की गाड़ी में घूम रहे हैं, लेकिन घर में अपने ही माता-पिता के लिए स्थान नहीं है।

इंसानियत वहाँ जाकर दम तोड़ देती है, जब जीवित माता-पिता अपना स्वयं का पिंड दान और मरणोपरांत के सभी संस्कार खुद ही करने लगे हैं। यह वृद्धाश्रम होने से भी ज्यादा पीड़ादायक है। इंटरनेट पर ऐसे इंटरव्यूज़ भरे पड़े हैं, जिनमें जीवन के अंतिम पड़ाव में नम आँखों से विलाप करते माता-पिता अपनी ही संतान के लिए यह कहते मिल जाते हैं कि जब जीते-जी बच्चों ने हमारी कद्र नहीं की, तो मरने के बाद इनके पत्थर दिलों में हमारे लिए कौन-सा प्रेम छलक जाएगा। वे तो तब यही सोचेंगे कि अच्छा हुआ, बला टली। इसलिए हम जीते-जी ही खुद का पिंड दान किए देते हैं।

मैं आज तक समझ नहीं पाया कि हमारे भीतर का जीव आखिर कहाँ मर गया है? क्या वास्तव में यह दिन देखने के लिए उन्होंने हमें एक काबिल इंसान बनाया? क्या इसलिए ही उन्होंने हमें अपने पैरों पर खड़ा किया कि अपना संतुलन संभालते ही हम उन्हें लात मार दें? यदि इंसान के रूप में जन्म लिया है, तो अपने उन दिनों को याद जरूर करना, जब तुम्हारे पास कुछ भी नहीं था, तुम्हारे माता-पिता तब तुम्हारे साथ थे। इस दुनिया में जब तुम्हारा कोई नाम नहीं था, तब उन्होंने तुम्हें अपना नाम दिया। जब इस दुनिया में तुम्हारी कोई पहचान नहीं थी, तब वो तुम्हारी पहचान बने। जब तुम इस काबिल भी नहीं थे कि अपनी ख्वाहिशें, अपनी जिदें खुद पूरी कर सको, तब उन्होंने तुम्हारी ख्वाहिशों को सर-आँखों पर रखा। तुम्हें इस काबिल बनाया कि लोग तुम्हारी इज्जत करे। ये ऐसे एहसान हैं, ऐसे कर्ज हैं, जिन्हें तुम सात जन्मों में भी चुकता नहीं कर सकते, लेकिन वे तुम्हारी तरह एहसान फरामोश नहीं है न! इसलिए कभी कहकर तुम्हें सुनाया नहीं, जिसका भुगतान आज वे खुद कर रहे हैं, लेकिन फिर भी तुम्हें कभी भला-बुरा नहीं कहते, हाँ, तुम भले ही कितना ही कह लो।

अपने माता-पिता को खुद से अलग करने का इतना ही शौक है न! तो उनके साथ-साथ उस नाम को भी अलग करने की हिम्मत खुद के भीतर ले आओ, जो उन्होंने तुम्हें दिया है, जो कि असल में तुम्हारा है ही नहीं। अरे! नाम तो क्या, यह जो उपनाम तुम इस्तेमाल कर रहे हो, यह भी तुम्हारा नहीं है, यह भी उन्होंने ही तुम्हें दिया है। उस आश्रय, उस चार दीवारी को खुद से अलग करके दिखाओ, जिसकी छाँव में तुम आज इतने बड़े हुए और उसी का मोल भूल गए। उस शोहरत को खुद से अलग करके दिखाओ, जो उनकी वजह से तुम्हें मिली है। उन अरमानों से खुद को अलग करके दिखाओ, जो एक पिता अपने बच्चे के लिए पालता है। अपनी रगों में बहते खून को खुद से अलग करके दिखाओ, जो उन्हीं का है, जिसके बूते आज तुम जिंदा कहलाते हो।

यह जो शोहरत वो कमा रहे हैं, मैं पूछना चाहता हूँ कि आखिर किस काम की है? यदि आप सोने के घर में भी रह रहे हैं, और आपके घर का बुजुर्ग सदस्य सुखी नहीं है, तो मुझे कहने में कोई तकलीफ नहीं है कि उस घर से बदतर इस दुनिया में और कुछ भी नहीं है। और उससे भी बदतर है उस इंसान का जीवन, जो ईश्वर समान अपने माता-पिता को पैरों की धूल समझता है। वेदों और पुराणों से भले ही कुछ नहीं सीख पाए अपने जीवन में, लेकिन ऐसे बेटों को इतना तो सीख ही लेना चाहिए कि जो वो आज बो रहे हैं, कल वही वो काटेंगे। हो सकता है उनके बच्चे उन्हें ब्याज सहित इस मूल को लौटाएँ। बेशक पढ़ने में यह बात दिल पर काँटे की तरह चुभ रही होगी, लेकिन ध्यान देने वाली है।

एक पिता अपने बच्चे को श्रेष्ठ जीवन देने में कोई कसर नहीं छोड़ता है। उसकी मंशा सारे जहान भर की खुशियाँ अपने बच्चे की झोली में डाल देने की होती है। एक पिता यही चाहता है कि अपने जीवन में जो कुर्बानियाँ उसने दी हैं, वह अपने बेटे को नहीं देने देगा। खुद अपने कपड़ों की परवाह नहीं करता, लेकिन बेटे को एक से बढ़कर एक कपड़े पहनाता है। खुद फटे जूते पहनता है, लेकिन अपने बच्चे को हर त्यौहार पर महँगे से महँगे जूते दिलाता है। उसकी हर ख्वाहिश पूरी करता है। वही पिता, जो अपनी ऊँगली पकड़कर बच्चे को चलना सिखाता है, अपने कँधे पर बैठाकर दुनिया की सैर कराता है, और उसके हर अरमान पूरे करता है, तरक्की कर लेने और शोहरत हासिल करने के बाद उसी पिता को वह बेटा वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाने चल पड़ता है, वह भी उन दिनों में जब उस उम्रदराज व्यक्ति को सबसे ज्यादा जरुरत अपने बच्चे की होती है।

कभी उस पिता की जगह पर खुद को रखकर सोचना जरूर, वह किसी से क्या ही शिकायत कर पाता होगा, आँसुओं का सैलाब भी आँखों के बाहर नहीं, बल्कि अंदर ही आता होगा, अच्छे पिता की जिम्मेदारियाँ निभाते-निभाते कब बाल सफेद हो गए, खुद का जीवन तो कभी जीया ही नहीं, ऐसे हजारों सवाल-जवाब उसका अनमना मन उसी से एक के बाद एक करता जाता होगा।

यह कहानी एक ऐसे पिता और बेटे की है, जिनका सफर उनकी अच्छी परवरिश की कहानी है, जिसका मूल्य आखिर में पैसे से नहीं, बल्कि सच्चे प्यार और समझदारी से आँका जाता है। पिता हमेशा ही अपने बच्चे को मानवीय मूल्यों, ईमानदारी और मेहनत के महत्व के बारे में सिखाता है। बचपन से ही वह अपने बेटे को यह सिखाने की कोशिश में लगा रहता है कि सच्ची दौलत उसे उन्हीं रिश्तों से मिलेगी, जो परिवार और नैतिकता से जुड़े होते हैं। लेकिन आज-कल के बच्चे इस दौलत को पैसों से भरे तराजू में तौलने के आदी हो चुके हैं।

एक बार भविष्य में अपने माता-पिता की जगह पर खुद को खड़ा करके जरूर देखना, यदि भीतर तक रूह काँप जाए न, तो समझ लेना कि अब भी इंसानियत का कुछेक ही सही, लेकिन बेशक आप में अंश जरूर बाकी है। आप जो बर्ताव अपने देव तुल्य माता-पिता के साथ आज कर रहे हैं, यदि आपका ही अपना खून, आपका बेटा आपके साथ करे, और आप में बुरी से बुरी स्थिति सहने की काबिलियत हो, तो आप सब-कुछ निरंतर रूप से जारी रखिएगा। 

लेकिन अपने बच्चों को यह शिक्षा जरूर दीजिएगा कि एक पिता अपने बच्चे के साथ हर स्थिति में खड़ा होता है, हमेशा उसके साथ रहता है, उसके प्यार में, उसकी गलतियों में और उसकी सफलता में। उनसे गुजारिश यही करिएगा कि अपने पिता की सीखों को याद रखे और इन्हीं मूल्यों के साथ अपने जीवन में आगे बढ़ें। उन्हें जरूर बताइएगा कि जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा पैसा नहीं होता, बल्कि समर्थन, ईमानदारी और परिवार का साथ होता है। उन्हें जरूर सिखाइएगा कि जीवन कितना ही उलझा या सुलझा हुआ हो, कितनी ही तरक्की कर ली हो, चाहे सफलता के शिखर पर ही क्यों न बैठे हो, माता-पिता का हाथ पकड़कर ही आगे बढ़ना। आपके लिए इस बात की गहनता समझ पाना मुश्किल जरूर होगी, लेकिन शायद यह आपको उस परिस्थति से बचा लेगी, जो आपकी वजह से आज किसी की हो रही है।

इस लेख के माध्यम से मैं सिर्फ यही बयाँ करना चाहता हूँ कि एक अच्छी परवरिश पर कभी-भी पैसा, दौलत और शोहरत भारी नहीं पड़ना चाहिए। सिर्फ पैसा कमाना ही सफलता का मापदंड नहीं होता, बल्कि जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव में अपने माता-पिता के साथ से आगे बढ़ना ही सही मूल्य में असली सफलता है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि हमारे बच्चों को धन कमाने के साथ-साथ अच्छे इंसान बनने का भी मार्गदर्शन करना हमारी जिम्मेदारी है।

मैं हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ, यदि मेरे शब्दों से किसी को ठेस पहुँची हो। बेशक, यह लेख उन लोगों के लिए नहीं है, जो अपने माता-पिता के सम्मान को खुद से भी ऊपर स्थान देते हैं, लेकिन मैं चाहता हूँ कि इस लेख का प्रत्येक पाठक उस शख्स की आँखें खोलने के मेरे प्रयास में मेरा साथ दे, जो मॉडर्न ज़माने की ओट में छिपकर बैठा है और कर माता-पिता के महत्व को भूल चुका है। शायद हम इस बहाने बिना छुए ही न जाने कितने माता-पिता के आँसू पोंछ दें।

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