गुरु-शिष्य परंपरा को फिर से शुरू करना बहुत जरुरी

It is very important to restart the Guru-Shishya tradition.

प्राचीनकाल से ही शिक्षा मानव सभ्यता का जरूरी हिस्सा रही है। समय बदलने के साथ शिक्षा का स्वरूप भी बदला है। प्राचीन शिक्षा प्रणाली कि यदि बात करें, तो आज भी गुरुकुल शिक्षा प्रणाली प्रेरणा का मुख्य स्रोत बनी हुई है। एक समय था, जब देश में हजारों की संख्या में गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति के माध्यम से बच्चे शिक्षा के साथ भारतीय संस्कृति, वेद उपनिषद, संस्कार, अनुशासन, आचार व्यवहार और शारीरिक शिक्षा के माध्यम से ज्ञान अर्जित करते थे और देश को आगे बढ़ाने का कार्य करते थे। लेकिन वर्तमान की शिक्षा प्रणाली में ऐसी कोई बात नहीं है, क्योंकि यह शिक्षा के स्थान पर पूर्णतः व्यापार बन गई है।

मेरा ऐसा मानना है कि गुरुकुल शिक्षा प्रणाली ही उचित थी, जिससे छात्र का पूरी तरह से विकास होता था और इसका उद्देश्य शिक्षण के मनोविज्ञान पर होता था। गुरुकुल में चुने जाने का आधार बच्चों का एटिट्यूड और मॉरल स्ट्रैंथ पर निर्भर करता था, जहाँ धार्मिक और अध्यात्मिक शिक्षा पर फोकस करते हुए इसमें किताबी ज्ञान पर जोर ना देते हुए समग्र शिक्षा पर जोर दिया जाता था।

चाहे वह कला का क्षेत्र हो, साहित्य, शास्त्र या दर्शन का, इनकी जानकारी के साथ छात्रों को व्यावहारिक हुनर भी सिखाए जाते थे और उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों के लिए निपुण किया जाता था, जिससे छात्रों में धैर्य और अनुशासन स्वतः ही विकसित हो जाते थे। लेकिन, इसके विपरीत आज के समय में बच्चे संस्कृति, संस्कार, देशभक्ति और अनुशासन के स्थान पर मोबाईल की दुनिया में बस कर अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। बच्चों के अभिभावक बच्चों को बोल्ड बनाने के चक्कर में बचपन से ही अपने सपनों को पूरा करने का तनाव और दबाव डालकर उन्हें बेहतर अंक लाने की मशीन बना रहे हैं।

दूसरों के सामने इंग्लिश बोलने का दबाव या फिर टैलेंट दिखाने का, बच्चे के ऊपर माता-पिता के होनहार होने का दबाव ज्यादा है। उस बेचारे को तो पता ही नहीं है कि मेरी रूचि किस विषय में है। बच्चे की रूचि जानना भी तो जरुरी है न, वरना वह कैसे अपना हुनर दिखा पाएगा या उस हुनर को जी पाएगा।

गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति बच्चों को हुनरमंद बनाए या ना बनाए, मनुष्य तो बना ही देती थी, जहाँ वे शिक्षा के साथ, देशभक्ति, संस्कृति, संस्कार, धर्म, अनुशासन, योग विद्या तथा अस्त्र-शस्त्र का पाठ भी सीखते थे। जिसे आजकल की भाषा में इंटर्नशिप कहते हैं, वह गुरुकुल से ही चली आ रही है, जिसमें गुरु शिष्य को प्रायोगिक ज्ञान देकर समझाते थे।

वर्तमान में बच्चे कितने ही शिक्षित क्यों ना हो जाएँ या पैसा कमा लें, लेकिन गुरुकुलीय शिक्षा के अभाव में वर्तमान पीढ़ी संस्कार विहीन होती जा रही है। गुरु शिष्य परंपरा में अनुशासन से बच्चे भविष्य की कठिन से कठिन और विषम परिस्थितियों को आसानी से सुलझा लेते थे। यह प्रणाली व्यवहारिक व सैद्धांतिक भी थी, जिसमें सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि बच्चों को हर विषय का ज्ञान दिया जाता था, लेकिन इसकी विलुप्ति का ही परिणाम है कि आज की पीढ़ी दिशा भटकती जा रही है। बच्चे मानसिक, शारीरिक और सैद्धांतिक रूप से पिछड़ते जा रहे हैं। बच्चों का आत्मबल दिन-ब-दिन कमजोर हो रहा है।

इसका दुष्परिणाम आज हम देख ही रहे हैं। छोटी-छोटी बातें बच्चों को बड़े स्तर पर प्रभावित करने लगी हैं। अभिभावकों के बढ़ते दबाव और तनाव में कम अंक आने पर बच्चे आत्महत्या जैसा कदम उठाने में जरा-सा भी नहीं सोचते, इससे बुरी स्थिति और क्या ही होगी? गुरुकुल में शिष्यों को जीवन में आने वाली हर तरह की कठिनाइयों से अवगत कराया जाता था, जिससे उनमें हर परिस्थिति से लड़ने की ताकत होती थी। लेकिन आज कम अंक लाने मात्र या कक्षा में शिक्षक से डाँट या मार पड़ने पर ही बच्चे आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। आत्महत्या करने से बड़ा पाप इस धरती पर कोई नहीं है, यह बात आज के स्कूलों में कहाँ सिखाई जाती है? संस्कार कहाँ सिखाए जाते हैं? बात करने और उठने-बैठने के तरीके कहाँ सिखाए जाते हैं? बड़ों का आदर करना और अच्छा आचरण करना कहाँ सिखाया जाता है?

वह कहते हैं ना “ओल्ड इस गोल्ड” तो यह बात सच में बहुत महत्व रखती है। आज की पीढ़ी को गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति ही बचा सकती है। पिछले कुछ समय से गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली पर लोगों का भरोसा फिर से लौटने लगा है और अभिभावक बच्चों को देश का अच्छा नागरिक बनाने के लिए गुरुकुलों की ओर रुख कर रहे हैं। मेरे हिसाब से भारतीय संस्कृति अपने आप में ही एक गौरवशाली परम्परा रही है, जिसे बढ़ाना हम सब का उत्तरदायित्व भी है और कर्त्तव्य भी, तो क्यों ना हम अपने बच्चों का भविष्य बनाने और उन्हें एक सुसभ्य नागरिक बनाने में इस परंपरा का हिस्सा बनें।

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