दलित वोट राजनीतिक दलों के लिए सत्ता तक पहुँचने का एक रास्ता है, तभी तो चुनाव पास आते ही नेताओं के भाषणों में दलितों के लिए योजनाओं और उनके प्रति चिंता झलकने लगती है। कई बड़े नेता दलितों के घरों में अचानक हाल समाचार पूछने चले जाते हैं, तो कई नेता दलितों के घरों में भोजन भी करने लगते हैं। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि सभी पार्टियों के लिए दलित समुदायों के वोट अहम् हैं।
देश में दलित समुदाय की आबादी लगभग 20 प्रतिशत है। इस कमज़ोर समाज की मतदान में ताकत बड़ी मानी जाती है, जिसके चलते राजनैतिक दलों में इन्हें लुभाने की होड़ लगी रहती है। एक समय था, जब कांग्रेस के कट्टर सपोर्टर के रूप में अनुसूचित जातियों को देखा जाता था। वक्त के साथ बसपा का गठन हुआ और यह वोट बैंक बसपा की झोली में जा गिरा।
गुजरात चुनाव में 2 राउंड के बाद कांग्रेस ने अपने मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री के नामों की घोषणा की थी, जिससे साफ ज़ाहिर हो गया था कि अब कांग्रेस दलित मतों का इस्तेमाल करना चाह रही है। हालाँकि, इस कार्ड का लाभ कांग्रेस को नहीं मिल सका था। देश में 543 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से 80 सीट एससी/एसटी के लिए आरक्षित हैं और 150 से ज्यादा सीटों पर इनका प्रभाव है, जबकि हमारे देश में 131 सांसद दलित हैं। इन आँकड़ों से साफ जाहिर है कि पार्टियों के लिए यह वर्ग न सिर्फ अति महत्वपूर्ण है, बल्कि सत्ता और सफलता की सीढ़ी भी है।
दलित वोटों का बँटवारा उपजाति के आधार पर भी किया जाता है। उत्तरप्रदेश और बिहार में दलित वोट प्रदेश की स्थिति तय करते हैं। 2017 विधानसभा चुनाव में इस वोट बैंक ने बीजेपी को ज़ोरदार जीत दी थी। वहीं अब आगामी चुनाव में भी इनका जरुरी योगदान देखने को मिल सकता है, जो राजनीतिक दलों के लिए सत्ता का रास्ता अधिक आरामदायक बना सकता है। आगामी चुनावों के लिए पार्टियों ने अपनी तैयारी शुरू की, तो सबसे पहले इस वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिशें तेज होती दिखी हैं।
देश के विकास के लिए सबका विकास होना जरूरी है। किसी भी समुदाय को वोट बैंक मानकर उनका इस्तेमाल किया जा सकता है, लेकिन उनका वास्तविक विकास कैसे किया जाए, इस पर कोई भी राजनैतिक दल विचार नहीं करता। देश के विभिन्न राज्यों में दलित वर्ग किस तरह प्रभाव डालता है।
इसे एक नज़र में इस तरह समझा जा सकता है कि उत्तरप्रदेश में दलितों की आबादी 21 प्रतिशत है, तो उत्तराखंड में 20 प्रतिशत है। हरियाणा में अनुसूचित जातियों की आबादी 21 प्रतिशत है। यहाँ 10 लोकसभा सीटें हैं, जिनमें से दो अंबाला और सिरसा आरक्षित हैं। छत्तीसगढ़ में 13 फीसदी दलित और 31 फीसद आदिवासी हैं। 28 विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। वही पंजाब में दलितों की आबादी 32 फीसदी है। पश्चिम बंगाल की बात करें, तो करीब 9.15 करोड़ आबादी में लगभग 29 प्रतिशत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग हैं। बिहार में दलितों की आबादी 16 प्रतिशत है, जबकि आदिवासी समुदाय 1.3 प्रतिशत है। बिहार राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण प्रदेश माना जाता है।
प्रदेशों के ये आँकड़ें चुनावों में आदिवासी, पिछड़ा और दलित वर्ग को शो मेकर बनाते हैं। कभी कांग्रेस के, तो कभी बसपा के, इस वोट बैंक में बीजेपी ने सेंधमारी की है और 2014 के बाद से यह बीजेपी सपोर्टर ही रहे हैं। लेकिन भारतीय जनता पार्टी को इस वर्ग का और कितना समर्थन मिलेगा, यह देखना और अधिक दिलचस्प होगा।
कुल मिलाकर देखें तो 24 में होने वाले आम चुनावों से पूर्व मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनाव, लगभग दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं. क्षेत्रीय या छोटे दल, अल्पसंख्यक समुदाय में अपनी अच्छी पकड़ रखते हैं, और इसके कई उदाहरण हमने पूर्व में हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में देखें हैं. ऐसे में बीजेपी-कांग्रेस के लिए छोटे व क्षेत्रीय दलों के साथ भी बेहतर रिश्ते बनाये रखना महत्वपूर्ण है, और जरुरत पड़ने पर गठबंधन की संभावनाओं पर भी काम करना आवश्यक है. मध्य प्रदेश के 80 लाख दलित वोटर्स, और राजस्थान के 17 फ़ीसद अनुसूचित जाति वर्ग के वोटरों व छत्तीसगढ़ के अल्पसंख्यक समुदायों पर राजनीतिक पार्टियों का फोकस, वोट बैंक में तब्दील हो पायेगा कि नहीं, यह तो समय बताएगा लेकिन इनके वोट सरकार बनने और बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे, यह निश्चित है.