अनुसूचित जाति-जनजाति के मतों को कैसे साधेंगे राजनीतिक दल?

How will political parties garner the votes of Scheduled Castes and Tribes?

चुनावी मौसम में सभी राजनैतिक दल पिछड़ा वर्ग के हितैषी बन जाते हैं और खासकर दलित-आदिवासियों को अपना वोट बैंक बनाने की कवायद में लग जाते हैं। अपनी राजनैतिक मंशाओं को पूर्ण करने के लिए हर पार्टी एक प्लान बनाती है। सभी दलों की नीतियाँ अलग ज़रूर होती हैं, लेकिन सभी का लक्ष्य एक ही होता है, सत्ता तक पहुँचने का रास्ता।

भारतीय जनता पार्टी को एक लम्बा समय लगा था इस वर्ग में अपनी पकड़ बनाने में, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि 2019 की जीत में दलित कार्ड ने बहुत अहम् भूमिका निभाई थी। वहीं कांग्रेस एक बार फिर दलितों और पिछड़ा वर्ग की सबसे करीबी बनने की कोशिश कर रही है। हालाँकि, यह कहना भी गलत नहीं होगा कि पार्टियों के लिए यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। यदि किसी भी दल पर यह ठप्पा लग जाए कि वह दलित वर्ग को विशेष महत्व देता है, तो अन्य वर्ग की नाराज़गी का शिकार भी होना पड़ता है।

अनेक जातियों और धर्मों को समेटे हमारे देश के संविधान में हर धर्म और जाति का महत्व समान है। ऐसे में जब राजनैतिक दल किसी भी विशेष समुदाय या धर्म को तरजीह देता है, तो अन्य आहत होते हैं। 2022 की गणना के अनुसार, देश में 22 प्रतिशत की आबादी आदिवासियों, दलितों की है। लेकिन प्रश्न है कि 22 प्रतिशत की आबादी वाले आदिवासियों के मतों का प्रभाव इतना कैसे है? और आखिर क्यों चुनावी दल इन्हें जोड़ने की जुगाड़ में लगे हैं।

सभी जानते हैं कि शिक्षा के अभाव में दलित और आदिवासियों को आसानी से लुभाया जा सकता है और इतना ही नहीं, इनकी वैचारिक एकता इन्हें चुनावों में और अधिक महत्वपूर्ण बना देती है। चुनावी मैदान में बीजेपी-कांग्रेस, दलितों आदिवासियों को अपने-अपने हिस्से में लाने के लिए विशेष जतन करती हैं। प्रदेश की राजनीति हो या देश की, दलितों और आदिवासियों को लुभाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते।

सबसे पहले तो यह समझ लें कि सालों साथ देने के बाद आखिर क्यों दलित समाज का कांग्रेस से मोहभंग हुआ था? कांग्रेस का हाथ दलित और आदिवासी समाज ने छोड़ा था, जिसकी वजह थी सत्ता में भागीदारी न होना। कांग्रेस में दलितों को पहचान नहीं मिली, न ही सत्ता में भागीदारी दी गई। किसी तरह के नेतृत्व में कोई प्रतिनिधित्व तक नहीं दिया गया, जिसके तहत नाराज़ दलित ने कांग्रेस से दूरी बना ली।

अपनी अनदेखी से परेशान दलित समाज को आकर्षित करने के लिए बीजेपी ने राजनीति में उन्हें विशेष स्थान दिया। पद और पावर से नवाज़ कर उन्हें जोड़ा गया। अब यही अन्य राजनैतिक दलों के लिए सबक बना। सामाजिक सशक्तीकरण के लिए प्रयास करने के बजाय बीजेपी ने उन्हें पॉवर देकर राजनैतिक रूप से ही सशक्त बना दिया। बीजेपी की इस रणनीति ने न सिर्फ दलितों को बीजेपी के पक्ष में लाकर खड़ा किया, बल्कि हिन्दुओं के विघटन पर भी रोक लगा दी।

बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में इसी रणनीति से दूसरी बार यूपी का किला फतह किया और इससे साफ देखा भी जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में लगभग सभी दलित विधायक और दलित सांसद भाजपा के हैं, जिससे साफ है कि दलित समाज की राजनैतिक मंशाओं की पूर्ति करके ही बीजेपी ने इन्हें अपने पक्ष में किया है।

बीजेपी की इस रणनीति का किसी भी अन्य दल के पास कोई जवाब नहीं है, इसलिए सभी ने इसी तर्ज पर दलितों को लुभाने का प्लान बनाया है। हालाँकि, कांग्रेस पहले ही अपना भरोसा खो चुकी है और अन्य राजनैतिक दल सत्ता से दूर है, इसलिए ही यह समाज भी बीजेपी से आकर्षित है।

मध्य प्रदेश हो राजस्थान या छत्तीसगढ़, इन तीनों ही राज्यों में अनुसूचित जाति-जनजाति के मतदाता फिलहाल दोनों ही प्रमुख दलों से बिफरे हुए दिखाई पड़ते हैं. हालांकि तीनों ही राज्य सरकारों में पिछड़ा वर्ग के प्रतिनिधियों को प्रमुख स्थान दिया गया है, लेकिन जिस हिसाब से हालिया राजनीतिक सरगर्मी इस वर्ग के जन प्रतिनिधियों से देखने को मिली है, उसे ध्यान में रखते हुए यह कहना मुश्किल है कि यह बड़ा वर्ग किस दिशा में आगे बढ़ेगा. हालांकि इसमें भी कोई दो राय नहीं कि राजनीतिक दल इन वर्गों के मतों को साधने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. उम्मीदवारों की सूची से लेकर बचे हुए समय में पदभार की जिम्मेदारी सौंपे जाने तक, खासकर बीजेपी-कांग्रेस के लिए रणनीति बनाने से लेकर फैसले लेने तक, सभी निर्णय चुनौतीपूर्ण होने वाले हैं.

Share