भारत देश में चुनावी राजनीति अब आदमी के बस की बात नहीं है। इसके पहले एक सवाल, कि क्या आपने किसी भी पार्टी के चुनाव प्रचार को देखा है? जिसमें चुनाव के समय पर होने वाले अघोषित पैसे का हिसाब आप सोच भी नहीं सकते हैं, जिसमें चल अचल संपत्ति, कार्यकर्ताओं, नेताओं और सरकारी तंत्र और मीडिया के खर्चे, इत्यादि हो सकते हैं।
चुनाव की औपचारिक घोषणा होते ही सरकार, सरकारी धन का इस्तेमाल कर सभाएँ प्रारंभ कर देती है। इनमें भर-भर कर सरकारी योजनाओं के लाभार्थी लाए जाते हैं और फिर चुनाव प्रारंभ होता है। सवाल यह है कि जब नोटबंदी जैसा फालतू और सनक से भरा फैसला इस समाज में सही साबित किया जा सकता है, तो उस समाज में ऐसा क्या हो गया है कि वह चुनाव में होने वाले खर्च को लेकर जाग जाएगी?
चुनाव आते ही मुफ्त अनाज, तरह तरह के आइटम्स और पैसे देने की योजना हमेशा ही कही जाती रही है। हमने अतीत में ऐसे कई मंत्री देखे हैं, जो अपने क्षेत्र में एक दिन प्रचार करते हैं या करते ही नहीं हैं। उनका काम होता है, तो जनता आसानी से जिता देती है। प्रदेशों में चुनाव पर होने वाले खर्च की कोई सीमा नहीं है। जितना चाहे, उतना खर्च कर सकते हैं। जब बुद्धिजीवियों को बुलाकर फर्जी बैठकें करते हैं, तो क्या इसमें सरकारी पैसा खर्च नहीं होता? आखिर चुनाव में होने वाले फिजूल खर्चों का जवाब कौन देगा? आखिर इतना पैसा आता कहाँ से है? जिस दिन यह स्पष्ट हो गया कि यह पैसा कहाँ से आया, चुनाव पर होने वाले खर्च स्वतः ही बंद हो जाएँगे।
इन खर्चों में आम आदमी की भी तो मेहनत है, क्योंकि इसमें आम आदमी का टैक्स है। ऊपर से टैक्स लादकर कहते हैं, टैक्स नहीं देंगे तो सड़कें कैसे बनेंगी? बिजली कहाँ से आएगी? जैसे इन सब का ठेका तो आम आदमी के कन्धों पर है। क्या इन सड़कों पर पार्टियाँ नहीं चलतीं? क्या बिजली का इस्तेमाल भी वे नहीं करतीं? कोई हिसाब है? और इसके ऊपर जीतकर भी इन पार्टियों ने आम लोगों का क्या भला किया है?
जो लोग करोड़ों खर्च करके चुनाव जीतते हैं, उनसे ईमानदारी की आशा भी कोई कैसे करे? क्योंकि भारत की जनता तो मूर्ख है, जो भावनाओं में बह जाती है और सवाल पूछना ही नहीं चाहती। आखिर यह कब तक होता रहेगा? और इसकी जरूरत क्या है?
दरअसल, चुनावी महासंग्राम होता ही ऐसा है कि इसमें गली-कूँचों तक राजनीति पसरती जाती है। बड़े-बड़े भाषणों और नारों को सुनने-सुनाने के लिए मायामंच बनाए जाते हैं, जिनमें पूरे न किए जाने वाले अनगिनत वादे किए जाते हैं, इनमे खर्च न हो, तो इन भाषणों को सुनेगा कौन?
बहरहाल, राजनीतिक पार्टियों से उनकी आय और खर्च का हिसाब माँगना ही चाहिए। और विगत 5 वर्षों की बात करें, तो हालात कुछ यूँ हैं कि उनके लिए पैसा पेड़ पर उग रहा है। पेड़ हिलाते जाइए, पैसा गिरता जाएगा, इस तरह चुनाव सफल हो जाते हैं और जीत तो सुनिश्चित है ही।
चुनाव में होने वाले इस फिजूल खर्चे को रोककर इसे जरूरतमंदों के लिए उपयोग में लाना चाहिए। जितनी जल्द कार्यवाही होगी देश के लिए उतना ही अच्छा है। हम भारत के नागरिक हैं, तो क्या यह हमारा कर्त्तव्य नहीं है कि देश की पूँजी को व्यर्थ न करें, बल्कि देश हित में लगाएँ?