गृह मंत्रालय द्वारा 2018 में सामने आई एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 में हिरासत में 1,845 कैदी मौत के घाट उतर गए, जो पिछले 20 वर्षों में भारतीय जेलों में हुई सबसे अधिक मौतें हैं, जबकि जेलों की औसत ऑक्यूपेंसी 117.6% थी। निस्संदेह, भारत में जेलों की स्थिति पिछले कुछ वर्षों में भीड़भाड़, कर्मचारियों की अनुपलब्धता और धन के अभाव के कारण काफी दयनीय हो चुकी है। इन बाधाओं ने कैदियों की संदिग्ध मौतों की बड़ी संख्या, कैदियों के बीच या कई बार कर्मचारियों के साथ हिंसक झड़पों, अस्वच्छता और अमानवीय जीवन को जन्म दिया है।
कटु है, किन्तु सत्य है कि जेलें कैदियों के लिए यातना का स्थान मात्र बनकर रह गई हैं, जहाँ उन्हें मूलभूत आवश्यकताओं और मानवाधिकारों से वंचित रखा जाता है, जिसके लिए देश का प्रत्येक नागरिक हकदार है। अमानवीय व्यवहार, यौन और मानसिक शोषण कैदियों को जिंदा लाश बनाने से कुछ कम नहीं है। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि कई बार कैदी यौन शोषण और मानसिक प्रताड़ना के शिकार होने को भी मजबूर हैं। इन मामलों को या तो अंदर ही दबा दिया जाता है या फिर पीड़ितों को अप्राकृतिक मौतों का सामना करना पड़ता है। आज, अधिकांश जेलें अमानवीय यातनाओं का सामना कर रहे सैकड़ों लोगों से भरी पड़ी हैं, जो आज-भी मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनमें से कई युवा और अनपढ़ हैं, जबकि कुछ इतने गरीब हैं कि वे जमानत की फीस की व्यवस्था कर पाने में भी अक्षम हैं।
माना कि वे कैदी हैं, लेकिन उससे पहले वे इंसान हैं। हाँ, उन्होंने अपराध किया है, लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उन्हें जीवन जीने का अधिकार नहीं है। भारत के संविधान में कैदियों की सुरक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है, लेकिन उनके लिए कुछ मौलिक अधिकार तो हैं न….
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि “राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या भारत के क्षेत्र में कानूनों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।” इस प्रकार, जेलों की दयनीय स्थिति निश्चित रूप से मानवाधिकारों का उल्लंघन है। ये कैदी के उपचार के लिए संयुक्त राष्ट्र मानक न्यूनतम नियम (नेल्सन मंडेला नियम) 2015 के उल्लंघन में खड़े हैं, जो सरकारों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहते हैं कि “जेल शासन को जेल जीवन और स्वतंत्रता पर जीवन के बीच किसी भी अंतर को कम करने की कोशिश करना चाहिए जो कि कैदियों की जिम्मेदारी या इंसान के रूप में उनकी गरिमा के कारण सम्मान को कम करें।”
अब समय आ गया है कि न्यायपालिका को जेलों की स्थिति को सुधारने के लिए आकलन करना चाहिए और सकारात्मक कदम उठाने चाहिए। उन्हें बंदियों के अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए और साथ ही उन्हें उचित सुरक्षा भी दी जाना चाहिए। इसके साथ ही उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, ताकि उन्हें अपने जीवन को बेहतर बनाने का मौका मिल सके।
जेलों के कैदी लंबे समय से अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन मानवता के इन भूले-बिसरे लोगों की खामोश चीखें अभी तक भी अधिकारियों को सुनाई नहीं दी हैं। यदि सकारात्मक कदम नहीं उठाए गए, तो परिणाम असहनीय होंगे। भारतीय जेलों में तत्काल सुधर की सख्त आवश्यकता है, साथ ही इस मानसिकता को अपनाने की भी जरुरत है कि “घृणा अपराध से की जाना चाहिए, अपराधी से नहीं।”