अपने कब पराए हो गए.. घर कब मकान हो गए..

When did our own become strangers.. when did houses become houses..

गली-मोहल्ले अब सुनसान हो गए हैं, अब पड़ोस वाली आंटी के घर की खिड़की का काँच नहीं फूटता, न ही अब तेज रफ्तार से उछाल खाती हुई गेंद छत पर जाती है, पतंग भी अब कटती हुई घर के आँगन में नहीं गिरती, मोहल्ले का कोई भी बच्चा अब लूका-छिपी खेलते हुए पास वाले काका के घर छिपने नहीं जाता, तरस गई हैं गलियाँ बच्चों की चिल-पुकार सुनने के लिए। अब जब आइसक्रीम वाले भैया मोहल्ले से गुजरते हैं, तो मायूस ही वापिस चले जाते हैं, क्योंकि उनकी गाड़ी में लगी घंटी की आवाज़ सुनकर एक-दो बच्चे ही घर के दरवाज़े से झाँक लें, तो बहुत बड़ी बात है।

अब उन गुड़िया के बाल बेचने वाले भैया को कौन बताए कि ये बच्चे तो बड़े शहरों और देशों में अपना भविष्य बनाने चले गए हैं और सूना कर गए हैं घर के बरामदों को। बच्चों की खिलखिलाहट के बीच से गुजरने वाले वो दिन भी क्या दिन थे, जब सूरज ढलते ही हजारों पक्षियों से ढके आसमान के नीचे मोहल्ले भर के हमउम्र बच्चों की महफिल जमा करती थी।

क्या कभी यह सोचा है कि इन गलियों के सूनेपन का जिम्मेदार कौन है? चहचहाते मोहल्लों में मचे एकांत के लिए सिर्फ और सिर्फ हम जिम्मेदार हैं। बच्चों की अच्छी परवरिश, बड़े स्कूलों में भर्ती, समाज में हमारे रुतबे का ख्याल, सभी को पीछे छोड़ हमारे बच्चे की सबसे आगे आने की चाह, जॉब के लिए उनका अपने शहर से दूर चले जाना और फिर शादी करके वहीं बस जाना.. उफ्फ! कितनी टीस है, यह हम क्या कर बैठे हैं.. अरे, हम अपने ही शरीर से अपना दाहिना हाथ काट बैठे हैं। अब बच्चों को अकेले रहने की इतनी आदत हो गई है कि न तो वे जॉइंट फैमिली के साथ घुल-मिलकर रह पाते हैं और न ही आने वाली पीढ़ी को परिवार का मोल समझा सकते हैं।

बच्चे घर से दूर नहीं हो रहे हैं, वो हमसे दूर हो रहे हैं। एक समय था, जब कम से कम त्यौहारों पर तो घर से दूर होते इन बच्चों का चेहरा दिख जाया करता था, लेकिन अब एक झलक उन्हें देखने की तलब, महज़ तलब बनकर रह गई है। कब तलक यह सिलसिला यूँ ही बरकरार रहेगा, पता नहीं।

रही बात शादियों की, तो वो भी घर से बहुत दूर कहीं मैरिज हॉल्स या रिसॉर्ट्स में होने लगी हैं। वहीं से बच्चे किसी मेहमान की तरह रवानगी ले लिया करते हैं और उन्हें दुलार करने के लिए तरसते रह जाते हैं घर के बड़े-बुजुर्गों के कँपकपाते हाथ.. बड़ी पीड़ा होती है, जब भी इस बारे में सोचता हूँ कि कैसे इस दूरी को खत्म किया जाए? कैसे एक बार फिर गलियों में बच्चों की चहचहाहट वापस लाई जाए? कैसे दादी-नानी की उन कहानियों को फिर से जिंदा किया जाए? कैसे मकान को एक बार फिर घर बनाया जाए? यह मेरा सपना ही है, जो उम्मीद करता हूँ कि आज न सही, कल जरूर पूरा होगा कि हम मकानों में नहीं, अपने बच्चों के साथ घरों में रहेंगे।

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