वक्त की रफ्तार ने आगे बढ़ाया या पीछे धकेल दिया हमें..

The pace of time has taken us forward or pushed us back.

मेरे ज़हन में कई दफा कुछ ऐसे ख्याल पनपते हैं, जो बयाँ करते हैं कि वक्त की रफ्तार वाकई हमारी सोचने की क्षमता और काम की हमारी काबिलियत से काफी तेज है। वक्त का पहिया चलता गया और लोगों के सोचने और समझने का नजरिया भी समान रूप से बदलता चला गया। बहुत-सी परम्पराएँ, कार्यशैलियाँ और विचार ऐसे रहें, जो काल के गाल में समां गए। अब लाख कोशिशें भी की जाएँ, तो उन्हें फिर से अमल में लाना नामुमकिन-सा जान पड़ता है। लेकिन उन्हें अपनाना भी समय की ही माँग है।

पहले के समय में बेशक लोग पढ़े-लिखे कम थे, लेकिन असल में वे हमसे हजारों गुना बेहतर थे। हम तो उनसे खुद की तुलना करने के भी काबिल नहीं हैं। अब हम ज्यादा पढ़-लिख गए हैं, ज्यादा समझदार हो गए हैं, लेकिन साथ ही साथ जाने-अनजाने में हम अपनी सोच का दायरा बेहद संकुचित कर बैठे हैं। शायद ऐसे बहुत-से लोग होंगे, जो मेरे इन विचारों से थोड़े भी सहमत नहीं हों। लेकिन कुछ एक के मन-मस्तिष्क में भी यदि मेरी बात घर कर गई, तो समझो बात बन गई। 

अब बात उत्तम सेहत की ही कर लेते हैं। आज के समय में बड़े-बूढ़ों की तो छोड़ ही दो, बच्चा-बच्चा भी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से बुरी तरह जूझ रहा है। आज छोटे बच्चों को हार्ट अटैक्स आने लगे हैं। एक समय था, जब यह समझा जाता था कि भई! फलाने को हार्ट अटैक आया है, तो जरूर उम्र दराज व्यक्ति ही रहा होगा। समय का पहिया घूमते-घूमते अपने नीचे इस परिभाषा को बुरी तरह रौंद गया है। पहले के ज़मानें में लोगों की उम्र भी ज्यादा हुआ करती थी, यानि उनका जीवन काल भी ज्यादा हुआ करता था, लेकिन अब बच्चों में भी बीपी, दिल का दौरा, आँखों आदि की बीमारी होना आम बात हो चुकी है। 

पुराने ज़माने में लोग जल्दी सोते थे और सूरज चाचू के उठने से पहले ही उठ जाया करते थे। लक्ज़री गाड़ियों पर सैर करने के बजाए हर दिन सुबह पैदल चला करते थे। पुराने समय में गाड़ी-मोटर का इस्तेमाल कम ही यानि दूर-दराज के क्षेत्रों में जाने या किसी इमरजेंसी के लिए ही किया जाता था, कुल मिलाकर आस-पास के काम लोग घूमते-फिरते ही कर आते थे। आज आलम यह है कि घर से बाहर निकलने से पहले जेबें टटोली जाती हैं कि गाड़ी की चाबी रख ली है या नहीं। भले ही फिर घर की चाबी साथ ली या नहीं, इसका चिंता कोसों दूर..

घर की औरतें सारा काम जैसे- गेंहू, मसालें, दालें आदि स्वयं अपने हाथों से घर में ही पीसा करती थीं। सिलबट्टा और पत्थर की चक्की या घट्टी उन दिनों हर घर की शोभा हुआ करती थी। आज मशीनी दौर चल पड़ा है। हर काम के लिए एक नई मशीन ने घरों में जगह ले ली है। कहने का अर्थ यह है कि असली मेहनत और लगन वक्त की रफ्तार में बहुत पीछे ही कहीं छूट गए।

पहले के लोग कहाँ जिम जाया करते थे? फिर भी शरीर से तंदुरुस्त हुआ करते थे। साधारण-से दिन भर के कामों में ही इतनी मेहनत-मशक्कत हो जाया करती थी कि यूँ ही थक हारकर रात में जल्दी और सुकून की नींद आ जाया करती थी। आज इन जिमों ने सुकून बेशक दिया है, लेकिन मोल में नींद को लेने के बाद। आज हर दसवीं बिल्डिंग में जिमें खुली पड़ी हैं। आज के समय में लोग रात-रात भर भर टीवी और लैपटॉप के सामने बैठे रहते हैं या फिर मोबाइल को अपनी आँखों की बलि देने की होड़ में लगे पड़े हैं। रात में देरी से सोना और अगली सुबह फिर देरी से जागना शरीर की कई बीमारियों का बड़ा तोहफा आज के लोगों को दे रहा है। 

पहले के समय में शादियाँ जल्दी कर दी जाती थीं। आज के मॉडर्न ज़माने को देखते हुए यह काफी हद तक गलत भी है, लेकिन क्यों न आज इसके बेहतर पहलुओं पर बात की जाए? यह वही समय था, जब हमारी बेटियाँ कुकर्म का न के बराबर ही शिकार हुआ करती थीं। कितनी ही बुरी सोच वाला व्यक्ति क्यों न हो, गलत नियत रखने या किसी लड़की का शोषण करने से पहले एक बार अपनी इज्जत का ख्याल कर ही लेता था। सड़कों या सुनसान इलाकों में लड़कियों का मुँह दबोचकर ले जाने वाले मामले कम ही देखने या सुनने को मिलते थे। अब जैसे-जैसे वक्त का पहिया मॉडर्न कल्चर वाली गलियों की तरफ रुख कर रहा है, यह राह में खतरों को अपने साथ लेता हुआ आगे को बढ़ रहा है। 

फिर आज के समय में फास्ट फूड और बाहर से भोजन मँगवाने का भी बड़ा बोलबाला है। पहले के समय में सादा और सात्विक भोजन दिनचर्या का हिस्सा हुआ करता था। चटनी में भी कई गुण थे और हाथ से प्याज फोड़कर उसमें नमक-मिर्ची मिलाकर खाना आज के मोमोज़ और नूडल्स से ज्यादा स्वादिष्ट हुआ करते थे। वे सादी दाल और सब्जी का सेवन किया करते थे। मेरी बात को वे लोग ही महसूस कर सकेंगे, जो उपरोक्त स्वादिष्ट भोजन के स्वाद से वाकिफ हैं। आज के समय में चाइनीज़, इटालियन और थाई फूड से नीचे बात ही कहाँ होती है? 

पुराने समय की रोज़मर्रा की आदतों पर ही गौर कर लेते हैं। क्या पहले के ज़माने में लोग सूरज निकलने के बाद तक सोते थे? क्या अपने निजी कामों के लिए नौकर-चाकर रखा करते थे? क्या उस समय लोग टेक्नोलॉजी की जकड़ में थे? पहले लोग कम पैसों में ही कुशलता से गुजरा कर लिया करते थे, क्योंकि कम आय में खर्चों का जिम्मा उठाना उन्हें बखूबी आता था। बेशक, खर्चे भी कम ही हुआ करते थे और हर चीज़ का दाम भी कम हुआ करता था। लेकिन वक्त की रफ्तार इसे भी पीछे छोड़ चुकी है और पहिए में साथ चिपका लाई है हरी बीमारियों का डेरा, भ्रष्टाचार का घेरा, भेदभाव की भावना और खुद को सबसे ऊपर व दूसरों को नीचा दिखाने की होड़। 

बदलते वक्त के साथ-साथ खुद में बदलाव लाना स्वाभाविक है, लेकिन यदि बदलाव सही दिशा में हो, तब तो बात है। आज के बदलते दौर में बदलाव बेशक काफी हुए हैं, लेकिन मैं ऐसा मानता हूँ कि सोच पुरानी ही क्यों न हो, यदि बात अच्छी और बेहतर सेहत की हो, तो समाज को इस पुरानी सोच को जरूर अपना लेना चाहिए। सोच का पुराना या नया होना मायने नहीं रखता, मायने रखता है सोच का सही होना, जिस पर हमने काम कर लिया, तो बात बन जाएगी।

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