भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्रों में से एक है। सिर्फ नाम के लिए ही नहीं, बल्कि भारत का संविधान अपने नागरिकों को स्वतंत्र चुनाव, कई पार्टियों वाला पार्लियामेंट सिस्टम, स्वतंत्र प्रेस और एक स्वतंत्र न्यायपालिका प्रदान करता है, जो समाज को एक जीवंत समाज बनाने में मदद करता है। मानवाधिकारों की गाथा गाते इस देश में एक नागरिक को उसकी स्थिति, लिंग, जाति, धर्म आदि से परे दिए जाने वाले अधिकारों से कोसों दूर यदि भारत की वर्तमान जेल प्रणाली पर नज़र डालें, तो आप उन तमाम मानवाधिकारों पर सवाल उठाना शुरू कर सकते हैं, जो जेलों में कैद इन कैदियों की भावनाओं को हर दिन ठेस पहुँचाते हैं।
पिछले एक दशक में भारतीय जेलों में कैदियों की संख्या में लगातार बढ़त देखने में आई है। जेलों में अत्यधिक भीड़भाड़ देखने से पता चलता है कि अपराध की दर और अपराधियों में खतरनाक रूप से वृद्धि हुई है। शायद यह सुनकर आप हैरत में पड़ जाएँ कि जेलों में बढ़ती कैदियों की यह संख्या में से एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जिन्हें अभी तक दोषी करार नहीं दिया गया है। ये विचाराधीन कैदी, भारत की कुल जेलों की आबादी का 62% हिस्सा हैं, जबकि विश्व का औसत 18-20% है। सजायाफ्ता कैदी सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में हैं, इसके बाद मध्य प्रदेश और बिहार का स्थान है।जेलों में कैदियों की लगातार बढ़त के साथ, कायदा तो यही कहता है कि कैदियों की बड़ी आमद को बनाए रखने के लिए बुनियादी ढाँचे और सुविधाओं में सुधार और कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि होनी चाहिए थी।
लेकिन इसके बजाए, स्थिति खतरनाक रूप से बिगड़ती चली जा रही है। भीड़ से खचाखच भरी भायखला जेल की कोई न कोई खबर लगातार रूप से कानों में पड़ ही जाती है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जेल में 583 लोगों की जगह वाले बैरक में करीब 1,600 कैदियों को रखा गया था।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है और शायद यह आखिरी भी नहीं होगा। सन् 1997 में मुंबई की एक जेल में आग लगने से सुरक्षा सावधानियों की कमी के कारण 900 लोग मारे गए थे।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत की जेलों की स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही हैं। कई जेलों में न सिर्फ गंदगी और भीड़भाड़ है, बल्कि बुनियादी सुविधाएँ भी सुधार को तरस रही हैं। अदालतों में मामलों की सुनवाई में देरी के कारण, एक, तीन और पाँच साल से अधिक समय से जेल में बंद विचाराधीन कैदियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि केवल जमानतनामा प्रस्तुत न करने के कारण विचाराधीन कैदियों को कैद नहीं किया जाना चाहिए।
देश में लगभग 1,339 जेलें हैं, जिनमें तकरीबन 4,66,084 कैदी मौजूद हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, भारतीय जेलों की अधिभोग दर 117.6% है, और उत्तर प्रदेश और सिक्किम जैसे राज्यों में अधिभोग दर कई गुना अधिक क्रमशः 176.5% और 157.3% है।
जहाँ एक तरफ कैदियों की संख्या में लगातार बढ़त बरकरार है, जगह या खर्चों में कोई वृद्धि नहीं देखी गई है। पहले से ही दुर्लभ संसाधनों को हर दिन अधिक संख्या में कैदियों के बीच बाँटा जाता है। भोजन, कपड़े, शौचालय की सुविधा, पानी की आपूर्ति, चिकित्सा देखभाल, शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसी सुविधाओं का संकट देखने में आ रहा है।
सभी कैदी आदतन अपराधी नहीं होते। कई कैदी ऐसे अपराधी हैं, जिनका कोई पिछला रिकॉर्ड नहीं है। कुछ कैदी महज़ संदिग्ध के रूप में कैद हैं। कैदियों के अधिकारों की कद्र करने के लिए अधिकारियों को एक सक्रिय दृष्टिकोण की आवश्यकता है। मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के साथ-साथ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत बुनियादी सम्मानों की सुरक्षा को बनाए रखे जाने की भी सख्त जरुरत है। कैदियों के प्रभावी सामाजिक पुनर्वास को सुनिश्चित करने के लिए पुलिस, न्यायपालिका और प्रशासन को एक साथ आना चाहिए, जिससे कि कैदियों की भावनाओं को ठेस न पहुँचे। यह न भूलें कि अपराधी होने से पहले वे आखिरकार इंसान ही हैं।