सरकारों की चाटुकारिता में तब्दील होता जा रहा महामहीम का सर्वोच्च पद – अतुल मलिकराम, राजनीतिक विश्लेषक

The highest post of His Majesty is turning into sycophancy of governments - Atul Malikram, political analyst

संवैधानिक दृष्टि और मूल सिद्धांतों को छोड़ दें तो आपको भारत में राष्ट्रपति पद की कितनी जरुरत महसूस होती है? बहुत से लोगों को तो प्रधानमंत्री के होने न होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता होगा, लेकिन पीएम और उनकी सरकार के पास इतनी पॉवर जरूर होती है कि व जब चाहे तब, भारत के प्रथम नागरिक को अपने इशारों पर नचाने के लिए इस्तेमाल कर सकती है? शब्द कड़ुए हैं लेकिन इस हकीकत से कोई मुंह नहीं फेर सकता. एक राष्ट्रपति जो देश का प्रतिनिधित्व करता है उसे देश के लिए हो रहे फैसलों में शामिल भी सबसे आखिर में किया जाता है, जग जाहिर है, महज हामी के रूप में अपना अंगूठा लगाने के लिए…आपातकाल पर मुहर लगानी हो या देश के लिए किसी काले कानून पर, सरकारों ने अपने बनाये महामहिमों का अपने हिसाब से खूब इस्तेमाल किया है.

तो क्यों न खानापूर्ति की इस सर्वोच्च पद को ही हटा दिया जाए! और रखा भी जाए तो उस पर मैं और मेरे जैसे देश के उन अन्य नागरिकों को मौका दिया जाए, जो सरकार के नक्शेकदम पर चलने के बजाए, अपने विवेक का इस्तेमाल करने में सक्षम हों. यदि यहां तक का सफर तय हो जाए तो देश के प्रथम नागरिक को चुनने का हक भी देश के सभी आम नागरिकों को मिले, ऐसा कोई प्रावधान लाया जाए.

राष्ट्रपति पद के लिए योग्य उम्मीदवार के रूप में सारे मापदंड पूरे करने के लिए आपको आर्टिकल 58 के अनुसार, 50 निर्वाचकों का अनुमोदकों के रूप में समर्थन चाहिए होगा, 15 हजार जमानत राशि, सरकारी नौकरी जिसके लिए देश के लाखों युवा सालों से उम्मीद लगाए बैठा हैं, वो नहीं होनी चाहिए, तो है भी नहीं. और उम्र के लिहाज से 35 वर्ष की आयु, मैं 20 साल पहले ही पार कर चुका हूं. और जहां तक जन सेवा या समाज सेवा की बात है, मैं अपनी क्षमता के हिसाब से समय-समय पर अपनी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी भी निभाता हूं. ऐसे में राष्ट्रपति पद के लिए मैं या मेरे जैसे अन्य साथी मैदान में क्यों नहीं उतर सकते? वो भी तब जब देश का लगभग सम्पूर्ण पढ़ा-लिखा तबका राष्ट्रपति कुर्सी की हकीकत बखूबी समझता है.

हालांकि यहां एक महत्वपूर्ण सवाल ये भी है कि संविधान ने तो अधिकार दे रखा है, लेकिन क्या उस अधिकार का इस्तेमाल करने की पहल करने की हिम्मत है किसी में? नहीं है तो कठपुतली के इस खेल को आने वाले कई सालों तक यूं ही देखते रहिए.

तो क्यों न खानापूर्ति की इस सर्वोच्च पद को ही हटा दिया जाए!

अंत में मैं, मौजूदा राष्ट्रपति उम्मीदवारों को ससम्मान बधाई देता हूं तथा समाज व राजनीति के प्रति आपके योगदान और संघर्ष को शीष झुकाकर नमन भी करता हूं. लेकिन क्या आप नहीं मानते कि आप का इस्तेमाल भी उसी राजनीतिक फायदे के लिए किया जाना है जो सियासत के मूल में बसा है! क्या ये सच नहीं है कि सरकार का कहा फैसला ही आखिरी फैसला होता है, और राष्ट्रपति सिर्फ हस्ताक्षर करने के लिए उपस्थित होता है. भले सेना राष्ट्रपति के अंडर हो लेकिन बादल में रडार छिपने का क्रेडिट प्रधानमंत्री को ही जाता है. राष्ट्रपति का दौरा डीडी दूरदर्शन और कुछ अख़बारों के अलावा कहां दिखाया या बताया जाता है? पद्मश्री, पद्मविभूषण जैसे समारोह न हो तो राष्ट्रपति की शक्ल भी कोई ईमानदारी से न पहचाने. फिर ऐसे पद और पद के पीछे लगने वाले सैकड़ों लोग, करोड़ों रुपये और भी तमाम चीजें सिर्फ सजा के रखने के लिए और जैसा कहा जाए वैसा करने के लिए…आखिर क्यों? क्यों, देश के एक आम नागरिक को, देश के सर्वोच्च नागरिक को चुनने का अधिकार नहीं है? क्यों इतिहास में राष्ट्रपति को सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ के लिए उपयोग किया जाता है, क्या इसे बदलपाना अब भारत की किस्मत में नहीं है?

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