सीखकर भले ही भूल जाएँ, लेकिन गुरु नहीं बन सकते शिष्य
“गुरु और माता-पिता ईश्वर के समान वंदनीय हैं” बचपन से ही हमें यह सिखाया जाता है, कुछ मानते भी हैं, लेकिन कुछ आधुनिकता के मोड़ पर मुड़कर इस कहावत और इसकी महत्ता को आगे बढ़ने के साथ पीछे छोड़ जाते हैं।
कल मैं एक परम् पूज्य महाराज जी के प्रवचन सुन रहा था। गुरु और शिष्य की बड़ी ही सुंदर कथा उन्होंने कही, जो दिल के भीतर जगह बनाकर बैठ गई। तो कथा इस प्रकार है कि एक सेवक कई वर्षों तक निःस्वार्थ भाव से अपने गुरु की सेवा करता है, गुरु के सोने के बाद सोता है और गुरु के उठने से पहले अपनी नींद को त्याग देता है। गुरु के भोजन आदि का ख्याल रखता है, उनके भोजन पाने का बाद ही खुद भोजन पाता है। गुरु की छोटी से लेकर हर बड़ी जरुरत का ध्यान रखता है। कई वर्षों तक अपने गुरु के लिए समान रूप से इस निःस्वार्थ सेवा भाव पर एक दिन स्वार्थ की परछाई पड़ जाती है, और इसका बीज धीरे-धीरे उसके मन में पनपने लगता है।
उसके मन में पहला विनाशकारी सवाल उठता है “गुरु और मुझ में अंतर ही क्या है?” जितने श्रेष्ठ वे हैं, उतना ही तो मैं भी श्रेष्ठ हूँ। तुलना की जाए, तो मैं उनसे भी अधिक श्रेष्ठ हूँ। देरी से सोने और जल्दी उठने के बाद भी उनकी पूरी दिनचर्या अकेले दम पर संभालता हूँ। वे तो थोड़ी देर के लिए आते हैं, और अपना ज्ञान भाषण देकर चले जाते हैं। उनसे अधिक काम तो मैं करता हूँ। फिर अपने ही गुरु से बात करने का उसका लहज़ा बदल जाता है, कभी अपने गुरु से ऊँची आवाज़ में बात न करने वाला सेवक उनसे आँख मिलाकर बात करने लगता है, अपने गुरु से सवाल-जवाब करने लगता है, उसके काम में नुक्स निकालने लगता है, वह खुद को श्रेष्ठ बताने का कोई मौका नहीं छोड़ता, और न ही थकता है अपनी तारीफों के पूल बाँधकर। वह इस आचरण का आदी होने लगता है। वह सब कुछ सीखकर गुरु का उपकार भूलने की भूल कर बैठता है, और देखते ही देखते उसमें गुरु बनने का गुरुर होने लगता है। यही भाव कई बार शिष्य के भी होते हैं। ऐसे में, सेवक या शिष्य के लिए यही वह दिन होता है, जब सफलता के सारे मार्ग उसके लिए हमेशा के लिए बंद हो जाते हैं।
मनुष्य की शिक्षा में गुरु का किरदार सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है। गुरु ही वह स्त्रोत है, जो शिक्षा और ज्ञान के बीज शिष्य के मन में अंकुरित करता है और जो जीवन के हर मोड़ पर शिष्य का मार्गदर्शन करने के लिए तत्पर रहता है। गुरु शिष्य को उस अनछुए ज्ञान का बोध कराता है, जो उसने स्वयं अपने जीवन के अनुभवों से प्राप्त किया है। शिक्षा लेने के समय, शिष्य मन लगाकर हर छोटी से लेकर बड़ी बात सिखता है। लेकिन जब शिष्य निपुण होने लगता है, तो वह अक्सर भूल जाता है कि उसने जो भी सीखा है, गुरु से ही सीखा है। यदि गुरु समक्ष नहीं होते, तो वह अज्ञानी ही होता। ज्ञान की अधिकता गर्व में बदल जाती है और शिष्य अपने गुरु की महत्ता ही भूल जाता है। वह अपने आत्म-विश्वास में इतना डूब जाता है कि फिर उसे यह याद नहीं रहता कि गुरु ही उसकी दिशा के मार्गदर्शक हैं।
जिसके मन में ‘मैं’ आ गया, वह किसी काम का नहीं, फिर चाहे वह सेवक हो या शिष्य। सेवक और शिष्य का स्थान सदैव गुरु के स्तर से नीचे ही रहता है, और यही उसूल है, गुरु को गुरु का स्थान नाम मात्र के लिए नहीं मिला है, उन्हें यह स्थान मिला है, क्योंकि वे नई पीढ़ी में ज्ञान का संचार कर रहे हैं। वे नई पीढ़ी को मर्यादा में रहना सीखा रहे हैं, संस्कार दे रहे हैं, सत्य के मार्ग पर चलना सीखा रहे हैं, अपने शिष्य को उन विधाओं में निपुण बना रहे हैं, जिनमें वे स्वयं हैं। वे शिष्य से अधिक ज्ञानी हैं, शिष्य से अधिक उन्हें अनुभव है, तब ही वे दाता की पदवी पर बैठे हैं और शिष्य याचक की। अब यदि याचक अपनी पदवी भूल बैठे, तो फिर भूल उसी की।
शिष्य यदि यह भाव को स्वीकार करता चले कि वह कभी गुरु का स्थान नहीं ले सकता है और उसका सर्वोच्च कर्तव्य है गुरु का आदर करना, उस शिष्य से श्रेष्ठ फिर और कोई नहीं। शिष्य की मर्यादा ही यही है कि वह गुरु से मिले ज्ञान को ज्ञान के रूप में नहीं, बल्कि उपकार के रूप में ले। ज्ञान मिलने के बाद गुरूर आने की संभावना बेशक मन के भीतर पनप सकती है, लेकिन उपकार एक ऐसा कारक है, जिसके जीवन में आने के बाद एक व्यक्ति शांतिप्रिय बन जाता है, जो फिर सिर्फ यही सोचता है कि किस प्रकार यह उपकार चुकाया जाए। तो बस, कर्म करते चलें, और अपने सिर पर सदैव अपने गुरु का हाथ बना रहने दें, इसमें सबसे अधिक भलाई शिष्य की ही है।