एक सपना, मेरे भारत का..

A dream, of my India..

बीते कुछ वर्षों से हम उस राह पर आगे बढ़ रहे हैं, जहाँ से हमें दुनिया को नया रूप और मोड़ प्रदान करना है। कुछ वर्षों पहले अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से सतत विकास के 17 लक्ष्यों की ऐतिहासिक योजना शुरू की थी, जिसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक अधिक संपन्न, समर्थ, सक्षम, समतावादी और संरक्षित विश्व की रचना करना है। इस योजना के तहत भारत भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। 2030 के नए और आधुनिक भारत का सपना लिए सतत विकास एजेंडा के अंतर्गत इस योजना में ऐसे विषय शामिल किए गए हैं, जिनसे हम लम्बे समय से जूझ रहे हैं।

शून्य गरीबी, शून्य भुखमरी, उत्तम स्वास्थ्य तथा खुशहाली, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, लैंगिक समानता, स्वच्छ जल तथा स्वच्छता, सस्ती तथा प्रदुषण-मुक्त ऊर्जा, उत्कृष्ट कार्य तथा आर्थिक वृद्धि, उद्योग, नवाचार तथा बुनियादी सुविधाएँ, असमानताओं में कमी, संवहनीय शहर तथा समुदाय, संवहनीय उपभोग तथा उत्पादन, जलवायु कार्रवाई, जलीय जीवों की सुरक्षा, थलीय जीवों की सुरक्षा, शांति, न्याय तथा सशक्त संस्थाएँ, लक्ष्य हेतु भागीदारी, ये 17 लक्ष्य ऐसे हैं, जो न सिर्फ भारत देश, बल्कि दुनिया भर के कई देशों के गहन मुद्दे हैं, जिन पर विचार किया जाना समय की माँग है। इन मुद्दों पर काम करना बेहद जरुरी है, जिसका उद्देश्य देश के भीतर असामनता को जड़ से समाप्त कर, सबके लिए सुरक्षित और स्वस्थ समाज का निर्माण करना है।

सतत विकास के लक्ष्यों से प्रत्येक व्यक्ति की सोचने-समझने की शक्ति और नजरिए में क्राँतिकारी बदलाव आएगा। 2030 के एजेंडा का मूल मंत्र है: ‘कोई पीछे न छूटे’। विचारणीय मंत्र है। यह मंत्र जनता और अन्य प्राणियों को समर्पित है, जो यह स्पष्ट करता है कि सभी 17 लक्ष्यों के तहत सभी को लाभ पहुँचे, किसी भी क्षेत्र में कोई भी वंचित न रहे और कोई भी पीछे न छूटे।

लेकिन मेरी नज़र में इस मूल मंत्र के मुताबिक कुछ ऐसे लक्ष्य पीछे छूट गए हैं, जिन पर विचार किया जाना चाहिए। यदि हम आधुनिक भारत के आगाज़ की बात कर रहे हैं, तो बारीक से बारीक विषय और मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए।

मेरे अनुसार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित उपरोक्त लक्ष्यों के अलावा अन्य 17 लक्ष्य और ऐसे हैं, जिन्हें विशेष रूप से भारत देश के सतत विकास के लक्ष्यों के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। इन लक्ष्यों में डिजिटल शिक्षा को सभी के लिए अनिवार्य और सुगम बनाना, वोकेशनल ट्रेनिंग को बढ़ावा देना, कास्ट सिस्टम पर पूर्णतः रोक लगाना, सभी प्रकार के रिजर्वेशन्स को बैन करना, राजनेताओं के लिए शैक्षिक योग्यता को अनिवार्य करना, देश में केवल दो ही प्रमुख राजनीतिक पार्टियाँ लागू करना, चुनावी प्रकिया को वर्चुअल बनाना तथा प्रचार-प्रसार पर होने वाले खर्चों पर लगाम, प्रत्येक सरकारी विभाग और एनजीओ में प्राइवेट सेक्टर की हिस्सेदारी को अनिवार्य करना, सीएसआर का फंड 2% से बढ़ाकर 5% करना, प्राइवेट और सरकारी नौकरी में एक समान वेतन का प्रावधान लागू करना, पूर्व सांसदों और विधायकों को मिलने वाली पेंशन पर तत्काल रोक लगाना, पर्यावरण संरक्षण हेतु हर वर्ष एक हफ्ते का देशव्यापी लॉकडाउन, व्यापार को सुगम बनाने के लिए सिंगल विंडो सुविधाओं का सृजन, जाति के हिसाब से जनगणना, न्यायपालिका और जेलों का विकास, खानाबदोश और घुमंतू समाज की खोई हुई पहचान वापस दिलाना, बाल मजदूरी तथा बाल विवाह के मुद्दों पर राष्ट्रव्यापी अभियान, हर आयु वर्ग की महिलाओं-बालिकाओं का सुरक्षात्मक सशक्तिकरण तथा हर क्षेत्र में बुजुर्ग वर्ग को विशेष प्रावधान, जैसे गंभीर मुद्दे शामिल हैं।

1. डिजिटल शिक्षा को सभी के लिए अनिवार्य और सुगम बनाना

विगत वर्षों में देश में आई महामारी के दौरान यह देखने में आया कि भारी तादाद में छोटे गाँवों के बच्चे शिक्षा से पिछड़ गए। कारण था नई टेक्नोलॉजी में ज्ञान का अभाव। लगभग एक से डेढ़ साल तक बच्चे स्कूलों से वंचित रहे और इसके एवज में उन्हें ऑनलाइन क्लासेस के माध्यम से शिक्षा दी गई। गाँवों और छोटे कस्बों, यहाँ तक कि बड़े शहरों से ताल्लुक रखने वाले कुछ लोगों के पास स्मार्ट फोन्स की कमी देखी गई, और जिनके पास थे, वे टेक्नोलॉजी से पूर्णतः अवगत नहीं थे। आने वाला समय किसी ने नहीं देखा, देश और बच्चों के भविष्य की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए देश के तमाम विद्यार्थियों के लिए डिजिटल शिक्षा को अनिवार्य और सुगम बनाना न सिर्फ देश के सतत विकास के लक्ष्यों में शामिल किया जाने वाला सबसे अहम् विषय है, बल्कि आधुनिक समय की माँग भी है।

2. वोकेशनल ट्रेनिंग को बढ़ावा देना

भारत के एजुकेशन सिस्टम में कई तरह के बदलाव लाने की जरूरत है। स्टूडेंट्स पर ज्यादा से ज्यादा विषयों का बोझ डाला जा रहा है, जबकि प्रैक्टिकल ट्रेनिंग का कोई प्रावधान नहीं है, जिससे वे वास्तविक तथ्यों से वंचित रह जाते हैं। यही कारण है कि कई स्थितियों में स्टूडेंट्स ग्रेजुएट होने के बाद भी बेरोजगार ही रहते हैं। शिक्षा के मायने ऐसे होना चाहिए कि स्टूडेंट्स को अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद आसानी से रोजगार प्राप्त हो सके।

साथ ही एक कमी और देश में देखने में आती है, वह है वोकेशनल ट्रेनिंग। अन्य देशों में बचपन से ही बच्चों में किसी क्षेत्र विशेष की नींव गढ़ी जाने लगती है। स्वीमिंग, स्पोर्ट्स, संगीत, नृत्य, अन्य कला या किसी प्रोफेशन आदि में बच्चों का भविष्य जोड़ने और उनके भीतर किसी क्षेत्र विशेष के प्रति देखी जा रही दिलचस्पी की पहचान कर पढ़ाई के अलावा वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाना चाहिए। इससे न सिर्फ बच्चों के हुनर को कम उम्र से ही पहचान मिलना शुरू हो जाएगी, बल्कि अपनी उम्र तक आने पर वे मजबूत प्रतिस्पर्धी का रूप ले चुके होंगे।

3. सभी प्रकार के रिजर्वेशन्स को बैन करना

संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने सन् 1960 में देश में शुरू हुई आरक्षण की व्यवस्था को लेकर कहा था कि यह आरक्षण केवल 10 वर्षों के लिए हो और हर 10 वर्षों में यह समीक्षा हो कि आरक्षित लोगों की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है या नहीं? उन्होंने यह भी कहा था कि यदि आरक्षण से किसी वर्ग विशेष का विकास हो जाता है, तो आगे की पीढ़ी को इसका लाभ नहीं देना चाहिए। लेकिन आज आरक्षण महज़ बैसाखी बनकर रह गई है। यह बैसाखी तरक्की की राह पर बढ़ रहे भारत की राह में रुकावट बनने से अधिक कुछ नहीं कर रही है। आरक्षण में देश और समाज को दो हिस्सों में बाँटने की बू आती है।

नामचीन परीक्षाओं में भारी मात्रा में आरक्षित सीटों से हताश होकर होनहार बच्चे देश से पलायन करने को मजबूर हैं। अव्वल दर्जे के अंक लाने के वाबजूद कम अंक लाने वाले छात्र परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाते हैं। यह देश की प्रतिभा के साथ खिलवाड़ से अधिक कुछ भी नहीं है। आरक्षण उन मुख्य कारणों में से एक है, जो भारत से भारत के सपूतों को दूर कर रहा है।

न सिर्फ शिक्षा, बल्कि रातनीति में भी आरक्षण देश के साथ खिलवाड़ कर रहा है। कई विभागों में बड़े अधिकारी और नेता आरक्षित वर्ग से हैं। यह व्यवस्था देश को सतत विकास के लक्ष्यों की ओर नहीं, बल्कि इनसे दूर ले जा रही है। यदि हम आधुनिक भारत कर सपना देख रहे हैं, तो सरकारी नौकरियों और राजनीति आदि से आरक्षण पर सख्ती से रोक लगना चाहिए।

4. राजनेताओं के लिए शैक्षिक योग्यता को अनिवार्य करना

राजनीतिक पद देश के भविष्य में बेहद मायने रखते हैं। जनप्रतिनिधियों पर ही देश के निर्माण और भविष्य की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि कमजोर प्रतिनिधि देश के बेहतर भविष्य के निर्माण में कतई सहायक नहीं हो सकते हैं। देश में नेता बनने के लिए कोई डिग्री तय नहीं है, लेकिन बात जब देश को आधुनिक और पूर्ण शिक्षित राष्ट्र बनाने की है, तो ऐसे में राजनेताओं का शिक्षित होना भी जरूरी है। आज के दौर में राजनीति को भी रोजगार की दृष्टि से देखे जाने की जरुरत है। देश में उच्च शिक्षित बेरोजगारों को राजनीति में रोजगार के रूप में अवसर मिलना चाहिए, ताकि उन्हें कुछ काम करने के साथ ही खुद को साबित करने का मौका भी मिल सके।

साथ ही संबंधित नेता को किसी क्षेत्र विशेष की बागडौर सौंपने के दौरान यह भी निर्धारित किया जाना चाहिए कि उसे उस क्षेत्र से संबंधित कितना ज्ञान है, यानि वह उस पद को संभालने योग्य है या नहीं। पढ़े-लिखे जन नेता बदलते ज़माने और डिजिटल युग की प्राथमिक माँग है।

उच्च शिक्षित नेता ही सही मायनों में सार्थक नीतियाँ बना सकते हैं और समाज को सही दिशा की ओर अग्रसर कर सकते हैं। राजनीति में न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करने का परिणाम यह होगा कि इससे राजनीति में उच्च शिक्षित युवाओं को आगे आने का मौका मिल सकेगा, जो देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देंगे।

5. देश में केवल दो ही प्रमुख राजनीतिक पार्टियाँ लागू करना

देश में आए दिन नई पार्टियों की नींव रखी जाने लगी है। हर कुछ दिनों में किसी नई पार्टी के ऐलान की जैसे प्रथा ही बन पड़ी है। ऐसे में जनता के लिए असमंजस की लहरें बढ़ती चली जा रही हैं। इसका दुष्परिणाम यह है कि जनता यह तय नहीं कर पाती है कि पुरानी पार्टी पर विश्वास करें या नई पार्टी को मौका दें। और फिर बात एक या दो पार्टियों की हो, तो दुविधा कम हो, लेकिन बड़ी संख्या में पार्टियों में से सर्वश्रेष्ठ का चयन वास्तव में चिंताजनक है। ऐसे में देश के सतत विकास हेतु देश में केवल दो ही प्रमुख राजनीतिक पार्टियाँ लागू करने का प्रावधान होना चाहिए।

कई पार्टियों का सृजन देश के हित से परे एक-दूसरे की काट करने और प्रतिस्पर्धा का हिस्सा होने से अधिक कुछ भी नहीं है। वे या तो एक-दूसरे को नीचा दिखाने का काम करती दिखाई पड़ती हैं, या फिर एक-दूसरे के कामों में दखल-अंदाजी करते हुए प्रतिद्वंद्वी पार्टी को अपने से हमेशा ही कमतर बताने के प्रयासों में जुटी रहती हैं। देश का विकास अहम् मुद्दा है, इस बात से ये प्रतिस्पर्धी पार्टियाँ कोसों दूर हो जाती हैं और आए दिन सियासी पारा अँगार पकड़ता चला जाता है। ऐसे में देश के सर्वश्रेष्ठ और जनता की उम्मीदों पर खरी उतरने वाली सिर्फ दो पार्टियों के वर्चस्व का प्रावधान होना चाहिए, ताकि उन्हें अपनी जिम्मेदारी का एहसास हो और वे देश हित में काम कर सकें।

6. चुनावी प्रकिया को वर्चुअल बनाना तथा प्रचार-प्रसार पर होने वाले खर्चों पर लगाम

चुनावी दौर नज़दीक आते ही एक बात, जिस पर विशेष तौर पर ध्यान दिया जाना चाहिए, वह है चुनावी प्रक्रिया के दौरान होने वाला ताबड़-तोड़ खर्च। अपनी पार्टी को जीताने की मुहीम छेड़ने के चलते चुनाव से पहले प्रचार-प्रसार के नाम पर देश की बड़ी आमदनी कौड़ियों के दाम लगा दी जाती है। यह पैसा यदि जरूरतमंदों के काम में लगाया जाए, तो शायद देश उनकी स्थिति में सुधार लाने में महत्वपूर्ण योदगान दे सकेगा।

एक तरफ हम आधुनिक भारत का सपना देख रहे हैं, और वहीं दूसरी तरफ प्रचार-प्रसार के पुराने ढर्रे पर चले जा रहे हैं। जमीनी स्तर पर किए जाने वाले प्रचार-प्रसार पर आधुनिकता की छाप छोड़ते हुए इसे वर्चुअल रूप दिया जाना समय की माँग है। इस हेतु यह प्रावधान देश में लागू किया जाना चाहिए कि चुनावी प्रचार-प्रसार के दौरान होने वाले बड़े-बड़े खर्चों पर रोक लगाने के उद्देश्य से सम्पूर्ण चुनावी प्रक्रिया को वर्चुअल बनाया जाए।

7. प्रत्येक सरकारी विभाग और एनजीओ में प्राइवेट सेक्टर की हिस्सेदारी को अनिवार्य करना

जहाँ एक तरफ धाँधली और इससे संबंधित खबरें आए दिन अखबारों के पन्ने भरने में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं, सरकारी विभागों में भी इसके चर्चे कमतर नहीं रहे हैं। बड़े-बड़े घोटालों और सरकारी परीक्षाओं में धोखाधड़ी कर भर्तियों का खामियाज़ा लम्बे समय से देश भुगत ही रहा है। रिश्वतखोरी, धाँधली और घोटाले कहीं न कहीं देश में आगे की ओर बढ़ते कदमों को तेजी से पीछे की ओर खींच लेते हैं।

इतिहास में देश में हुए घोटालों से भारत अछूता नहीं है। कई एनजीओ भी इतिहास में धाँधली के कटघरे में पाए गए। ऐसे में आधुनिक भारत का आगाज़ करने के चलते सरकारी महकमों और देश के तमाम एनजीओ को उचित निगरानी के उद्देश्य से प्राइवेट भागीदारी के सुपुर्द करने का प्रावधान होना चाहिए। इससे न सिर्फ प्राइवेट सेक्टर्स होने वाली गतिविधियों पर नज़र रख सकेंगे, बल्कि समय-समय पर, इनके द्वारा किए जाने वाले कार्यक्रमों आदि की उचित वर्कशीट भी तैयार की जा सकेगी। इस प्रकार प्रत्येक सरकारी विभाग और एनजीओ में प्राइवेट सेक्टर की हिस्सेदारी को अनिवार्य करना, भारत के सतत विकास के अहम् लक्ष्यों में से एक के रूप में खुद को साबित करता है।

8. पूर्व सांसदों और विधायकों को मिलने वाली पेंशन पर तत्काल रोक लगाना

चाहे नौकरी प्राइवेट हो या सरकारी, आकर्षक सैलेरी की चाह सभी में भरपूर होती है, वहीं सरकारी नौकरियों में पेंशन मिलना एक अलग ही आकर्षण है। लेकिन नेताओं की बात अलग है। हमारे देश में ऐसे नियम हैं कि यदि कोई नेता पूर्व सांसद या विधायक की पेंशन का लाभ उठा रहा है, और इस बीच यदि वह फिर से किसी मंत्री पद का भार संभालने लगता है, तो उसे मंत्री पद के वेतन के साथ ही साथ पेंशन भी मिलती रहती है। इतने पर बात खत्म नहीं होती, सांसदों और विधायकों को डबल पेंशन लेने का भी हक हमारे नियमों में है। यदि कोई विधायक बाद में सांसद बन जाए, तो उसे दोनों की पेंशन मिलती है।

पेंशन प्राप्ति के लिए कोई न्यूनतम समयसीमा भी हमारे प्रावधान में नहीं है, एक दिन का सांसद भी पेंशन पाने के हकदार है। उसे न सिर्फ सेकंड एसी रेल का सफर मुफ्त मिलता है, बल्कि 25 हजार रूपए प्रतिमाह पेंशन भी मिलती हैं। साथ ही मृत्यु होने पर परिवार को आधी पेंशन मिलती है। मुद्दा बेहद विचारणीय है, जिस पर काम करना ऊपर-नीचे होते अर्थव्यवस्था के हिंडोलों को रोक सकता है।

सवाल यह उठता है कि सैलरी-पेंशन के आकर्षण के बीच जनसेवा बची ही कितनी? भारत में सिर्फ गुजरात ऐसा राज्य है, जहाँ पूर्व विधायकों को किसी तरह की पेंशन नहीं मिलती। साथ ही विधायकों को पेंशन के लिए न्यूनतम कार्यकाल की बंदिश को सिर्फ चार राज्यों ने लागू किया हुआ है। असम में यह कार्यकाल चार साल का है, ओडिशा में एक साल और त्रिपुरा और सिक्किम में पाँच साल का। गुजरात की तरह ही पूरे देश में सम्पूर्ण रूप से पूर्व सांसदों और विधायकों को मिलने वाली पेंशन पर तत्काल रोक लगाने का प्रावधान 2030 के भारत के सतत विकास के लक्ष्यों में शामिल किया जाना चाहिए।

9. पर्यावरण संरक्षण हेतु हर वर्ष एक हफ्ते का देशव्यापी लॉकडाउन

कोरोना महामारी के दौरान देश भर में लगे लॉकडाउन के परिणाम और दुष्परिणाम दोनों ही हमने देखे हैं। जहाँ एक तरफ इसका सीधा असर एक आम आदमी की आमदनी पर मोटे तौर पर पड़ा, वहीं दूसरी तरफ प्राकृतिक संसाधन और अन्य जीव खिलखिला उठे। देश-दुनिया के कई हिस्सों में जानवर बिना किसी डर के खुले में विचरण करते दिखे। स्वच्छता की दृष्टि से नदियों तथा जल के अन्य स्त्रोतों में बड़े स्तर पर सुधार देखे गए। गाड़ियों और कारखानों से निकलने वाले धुएँ की पर्यावरण में घुलकर इसे दूषित करने की मात्रा पर रोक लगने के साथ ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा।

प्रकृति ने कोरोना काल में हमें पर्यावरण संरक्षण की अहमियत समझाने की भरसक कोशिश की है। यह कोशिश कहर के रूप में बरसे, उससे पहले हमें जागरूक होना होगा। प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगाना, अपशिष्ट पदार्थों को जल में मिलने से रोकना, विषाक्त गैसों को वायु में मिलने से रोकना, पेड़ों के काटने पर रोक लगाना और अधिक से अधिक मात्रा में पेड़-पौधें लगाना, मिट्टी की उर्वरा को बनाए रखने के लिए रासायनिक खाद के बजाए जैविक खाद का उपयोग करना, आदि, ये ऐसे विषय हैं, जिन पर काम करना भयंकर भविष्य से हमारा और हमारी आने वाली पीढ़ियों का बचाव कर सकता है, लेकिन ये सभी धीमी प्रक्रियाएँ हैं।

कोरोना महामारी के दौरान लगे लॉकडाउन का सीधा असर प्रकृति के हित में देखा गया। इसे ध्यान में रखते हुए देश में प्रतिवर्ष एक हफ्ते का देशव्यापी लॉकडाउन लगाने का प्रावधान होना चाहिए। साथ ही इसे 2030 के भारत के सतत विकास के लक्ष्यों में से एक के रूप में शामिल किया जाना चाहिए।

10. माता-पिता का सम्मान

बदलते ज़माने के साथ-साथ नई पीढ़ी में भी बड़े बदलाव देखने में आए हैं। पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में शुरू से ही अलग रहने की मजबूरी बाद में आदत बन जाती है, जो उनके परिजनों के सामने श्राप बनकर खड़ी हो जाती है। आजकल ऐसे कई मामले देखने में आने लगे हैं, जिसमें माता-पिता और बच्चों के बीच बढ़ती दूरियाँ अपमान का विकराल रूप ले लेती हैं। हर दिन के झगड़े और आपसी मन-मुटाव कई बार हिंसा का रूप ले लेते हैं। संपत्ति के मोह में नई पीढ़ी के कुछ बच्चे उसी संपत्ति को बनाने वाले माता-पिता की देख-रेख में हाथ पीछे खींचते नजर आने लगे हैं।

भारत माता-पिता को भगवान का रूप मानने वाला देश है। वेदों, पुराणों आदि में भी माता-पिता का स्थान देवतुल्य दर्शाया गया है। जिस देश में माता-पिता की सेवा करने के रूप में श्रवण कुमार का गुणगान किया जाता है, उस देश में माता-पिता की सेवा करने के लिए कानून का सहारा लेना पड़ रहा है। देश में प्रारंभिक तौर पर कानून माता-पिता के लिए प्रावधान लाए जा रहे हैं, लेकिन क्या यह भारत की संस्कृति के अनुसार सही है?

एक वो बच्चे हैं जिन्हें माँ-पिता नहीं, सिर्फ संपत्ति चाहिए और दूसरे वो, जिनके लिए उनके माता-पिता ही उनकी संपत्ति हैं। आज के भारत की विडंबना यही है कि दूसरे किस्म के बच्चों की तादाद गिर रही है। पहली किस्म के बच्चे अपने माता-पिता को एक बोझ की तरह देखने लगे हैं। ऐसा बोझ, जिसे वे ढोना नहीं चाहते। शायद इसीलिए श्रवण कुमार के इस भारत में माता-पिता की सेवा करने के लिए भी कानून बनाने की जरूरत पड़ी है। सतत विकास के लक्ष्यों में माता-पिता के सम्मान को पनाह दी जाना चाहिए, जिससे कि उनके मोल को समझा जा सके।

11. जूठा छोड़ने पर सजा का प्रावधान

रोटी, कपड़ा और मकान जीवन का आधार माने जाते हैं, जिसमें से सबसे जरुरी एक इंसान के लिए रोटी ही है। आज यदि दुनियाभर की बात की जाए, तो हर व्यक्ति का पेट भरने लायक भोजन होने के बावजूद हर दस में से दो व्यक्ति भूखे रह जाते हैं। हालात कुछ यूँ हैं कि दुनियाभर में हर वर्ष तैयार होने वाले भोजन का एक तिहाई हिस्सा बर्बाद हो जाता है। बर्बाद भोजन की मात्रा इतनी होती है कि उससे 2 अरब लोगों के भोजन की जरूरत पूरी हो सकती है। विवाह समारोह, पार्टियों और धार्मिक आयोजनों में भी 15 से 20 फीसदी तक भोजन फेंक दिया जाता है।

रोटियाँ सिर्फ उन्हीं कि थालियों से कूड़े तक जाती हैं, जिन्हें यह नहीं पता होता कि भूख क्या होती है। जूठा छोड़ने पर देश में सख्त नियम तथा कानून बनाए जाने चाहिए, जिससे कि वर्ष 2030 तक उबरा जा सके। खर्च करने की क्षमता के साथ ही भोजन फेंकने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। इससे बचाव हेतु भोजन फेंकने पर पूर्णतः रोक लगाई जानी चाहिए और सख्त दंड लागू किए जाने चाहिए। होटल आदि में भी यह नियम लागू हो कि ऑर्डर देने के बाद बचे हुए भोजन को पैक कराकर लोग स्वयं अपने साथ ले जाएँ, जिससे कि भोजन की बर्बादी को रोका जा सके।

12. जाति के हिसाब से जनगणना

विदित है कि भारत में हर दस वर्षों में एक बार जनगणना की जाती है, जिससे सरकार को विकास योजनाएँ तैयार करने में मदद मिलती है। किस तबके को कितनी हिस्सेदारी मिली, कौन हिस्सेदारी से वंचित रहा, इन सब बातों का पता चलता है। लेकिन हैरत की बात है कि देश की जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की ही पूछ-परख होती है। अन्य जातियों को जनगणना से दूरस्थ स्थान पर रखा जाता है। ऐसे में समय-समय पर देश में जातिगत जनगणना की माँग तेज़ होती है, लेकिन फिर यह ठंडे बस्ते में चली जाती है। अक्सर अखबारों आदि में जाति संबंधित डाटा को हवा दी जाती है, सवाल यह है जनगणना के आँकड़ों में इन जातियों को पनाह न मिलने के बावजूद यह आँकड़ा लाया कहाँ से जाता है?

कहने का तात्पर्य यह है कि देश में हर दस वर्षों में होने वाली जनगणना में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की गणना हमेशा से की जाती रही है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग को इस गणना से दूर रखा जाता है। यह बात विचारणीय है कि भारत में जातिगत जनगणना आखिरी बार ब्रिटिश शासन के दौरान सन् 1931 में हुई थी। इस दौरान सभी धर्मों के लोगों का डाटा जुटाया गया था। अंग्रेज जनगणना में हर रियासत के हिसाब से धर्म और जाति के आधार पर आँकड़ें तैयार करते थे। किस धर्म में कितने पुरुष, महिलाएँ, बच्चे और बुजुर्ग हैं, इसका सारा डाटा तैयार होता था। इसके बाद सन् 1941 की जनगणना में आँकड़ें पेश नहीं किए गए। वहीं स्वतंत्रता के बाद सन् 1951 में हुई जनगणना में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जनजातियों को ही गिना गया। तब से लेकर अब तक इसी ढर्रे पर गणना होती चली आ रही है।

आधुनिक भारत के सृजन के उद्देश्य से इसमें फेरबदल करना देश में तकरीबन सदी से होते आ रहे जातिगत पक्षपात पर पूर्णविराम लगाएगा। इस प्रकार 2030 के भारत के सतत विकास के लक्ष्य में जातिगत जनगणना को शामिल किया जाना निष्पक्ष भारत की नींव रखने में योगदान देगा।

13. न्यायपालिका और जेलों का विकास

न्यायपालिका का विकास और भारतीयकरण समय की माँग है। हमारे देश में दुनिया की सबसे पुरानी न्यायपालिका प्रणाली है, जो 5000 साल पुरानी है। भारत के इतिहास में एक बहुत प्रभावी, भरोसेमंद और लोकतांत्रिक न्यायिक प्रणाली रही है, लेकिन वर्तमान निर्णयों में अधिकांश सार पश्चिमी न्यायशास्त्र से लिए गए हैं, और भारत की अपनी प्राचीन प्रणाली को बहुत कम मान्यता दी जाती है। न्यायालयों की कार्यप्रणाली और शैली भारत की जटिलताओं के साथ मेल नहीं खाती है। उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बेहद कम है। उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की संख्या केवल 11% है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि महिलाओं का प्रवेश किसी क्षेत्र विशेष को ऊँचाई पर ले जाता है। साथ ही पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाना होगा और सभी छोटे-छोटे मामलों को पंचायती राज संस्थाओं को दी जाना चाहिए। दशकों खींचे चले जाने वाले मुकदमों का शीघ्र-अतिशीघ्र निपटान हो, ऐसा प्रावधान होना चाहिए।

देश के जेल भी विकास की दूर से ही राह निहार रहे हैं। भारतीय जेलों में कैदियों की संख्या में लगातार बढ़त देखी जा रही है, लेकिन इससे परे जेलों की व्यवस्था में किसी प्रकार का कोई सुधार नहीं दिखाई देता है। कैदियों की इस संख्या में से एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जिन्हें अभी तक दोषी करार नहीं दिया गया है। लगातार बढ़त के साथ, बुनियादी ढाँचे और सुविधाओं में सुधार और कर्मचारियों की संख्या में भी वृद्धि होना चाहिए। बैरक में कैदियों की सीमा के भीतर ही उन्हें सुविधा जी जाना चाहिए, बजाए इसके कि सीमा से अधिक कैदियों को सभी सुविधाओं से परे एक ही बैरक में रखा जाए। इसके साथ ही अपराधियों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अदालतों में जल्द से जल्द सुनवाई हो।

जहाँ एक तरफ कैदियों की संख्या में लगातार बढ़त बरकरार है, जगह या खर्चों में कोई वृद्धि नहीं देखी गई है। पहले से ही दुर्लभ संसाधनों को हर दिन अधिक संख्या में कैदियों के बीच बाँटा जाता है। भोजन, कपड़े, शौचालय की सुविधा, पानी की आपूर्ति, चिकित्सा देखभाल, शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण जैसी सुविधाओं का संकट देखने में आ रहा है। इन पर सुधार 2030 के भारत की नई गाथा रचेगा।

14. खानाबदोश और घुमंतू समाज को पहचान दिलाना

भारत में घुमंतू समुदायों की आबादी 13 करोड़ से भी अधिक है, लेकिन पिछले 74 वर्षों में सरकारों की नीतिगत शून्यता और संस्थागत विफलता ने इस समाज की समस्याओं को चरम पर पहुँचा दिया है। देश में घुमंतू समुदायों की स्थिति में गिरावाट दशकों से जारी है, जिसके चलते यह समाज हर स्थिति में भारत के अन्य समुदायों से बहुत ज्यादा पिछड़ गया है। यह हमारे देश की विडंबना है कि इन जनजातियों की कुल आबादी का 10 प्रतिशत हिस्सा भी हमारे समाज की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाया है तथा सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ है।

भारत की विमुक्त घुमंतू एवं अर्द्ध घुमंतू जनजातियों में करीब 840 जातियाँ शामिल हैं। देश की आजादी के बाद से अब तक इन समुदायों के लिए महज 8 आयोग बने हैं, जिन्होंने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से घुमंतू जनजातियों को पिछड़ेपन की सूची में शामिल करने एवं सुरक्षित आरक्षण की सिफारिश की है, परंतु इस समुदाय की राजनीतिक भागीदारी नगण्य होने के कारण किसी भी आयोग की रिपोर्ट को संसद में पेश नहीं किया गया। घुमंतू समुदाय के लिए यूपीए सरकार द्वारा गठित बालकृष्ण रेनके आयोग व एनडीए सरकार द्वारा गठित दादा इदाते आयोग की रिपोर्ट अभी तक ससंद में पेश नहीं की गई है।

अपनी जिंदगी घूम-घूमकर बसर करने के कारण इस समुदाय के मृत परिजनों को मौजूदा शहर या गाँव के लोग अंतिम संस्कार तक नहीं करने देते हैं। जीते जी घूमने के साथ ही इनका मृत शरीर भी घूमता रहता है।

मजबूर परिजन सुनसान जगह देखकर मृत व्यक्ति का दाह संस्कार करते हैं। भारत के इन बेसहारा समुदायों को सर ऊँचा करके जीने के लिए हमारी सरकार तथा समाज के समर्थन की बेहद जरुरत है। प्रशासन को चाहिए कि अब इन समुदायों के लिए अपने मोहभंग से अलग उचित प्रावधान बनाने को लेकर विचार करे और उन्हें उनकी खोई हुई पहचान वापस दिलाए।

15. बाल मजदूरी तथा बाल विवाह के मुद्दों पर राष्ट्रव्यापी अभियान

एक तरफ हम आधुनिक भारत की बात करते हैं, और दूसरी तरफ बच्चों के अधिकारों को जिम्मेदारियों के बोझ तले रौंदते चले जाते हैं। बाल मजदूरी तथा बाल विवाह ऐसे दो दयनीय मुद्दे हैं, जिनके नीचे न जाने कितने ही मासूम दबकर रह गए। इसके लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाए जाने चाहिए, जिससे कि इन मुद्दों पर विराम लगाया जा सके।

भारत अरसों से बाल मजदूरी और बाल विवाह से पीड़ित देश है, जहाँ एक तरफ गरीबी और अन्य गंभीर कारणों आदि के चलते बच्चों के भविष्य को काम के बवंडर में झोंक दिया जाता है, वहीं दूसरी तरफ देश की नन्हीं बेटियों को पुरानी परम्पराओं और मान्यताओं के नाम पर सात फेरों के बंधन में उस समय बाँध दिया जाता है, जब वे ठीक से सात फेरों का मतलब भी नहीं जानती हैं। बाल विवाह की वजह से नन्हीं बालिकाओं पर हिंसा, शोषण तथा यौन शोषण का खतरा बना रहता है।

वहीं दूसरी तरफ बाल श्रम पर भी पूरी तरह रोक लगाने की जरुरत है। वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार, भारत में बाल मजदूरों की संख्‍या 1.01 करोड़ है, जिसमें 56 लाख लड़के और 45 लाख लड़कियाँ हैं। शिक्षा से वंचित हो जाना और उनका शारीरिक तथा मानसिक विकास न हो पाना, शोषण का शिकार होना, बाल तस्‍करी और घरों में नौकर या भिखारी बनाने पर मजबूर करने जैसी कई प्रताड़नाएँ मासूमों को बेवजह झेलना पड़ती है।

यह हमारे देश को आगे बढ़ाने वाला नहीं, बल्कि पीछे खींचने वाला विषय है। गैर-कानूनी मुद्दे होने के बावजूद इन पर कोई अंतर दिखाई नहीं देता है। इसलिए आधुनिक भारत के तहत ऐसा प्रावधान लागु किया जाना चाहिए, जिससे कि ऐसा कोई मामला सामने आने पर सजा के रूप में उस बालक या बालिका की ताउम्र पढ़ाई का खर्च आरोपित व्यक्ति उठाए।

16. प्राइवेट और सरकारी नौकरी में एक समान वेतन का प्रावधान लागू करना

एक समान वेतन का अधिकार, संवैधानिक रूप से किसी भी नागरिक के पास नहीं है। लेकिन हम इस दिशा में एक कदम बढ़ाते हुए, सरकारी और प्राइवेट नौकरी को लेकर चलने वाले सामाजिक अंतर्द्वंद्वों को कम करने की दिशा में, सरकारी और प्राइवेट कर्मचारियों के लिए एक समान वेतनमान के प्रावधान पर विचार कर सकते हैं।

यह एक जटिल प्रक्रिया हो सकती है, जिसके अंतर्गत इस बात का ध्यान रखना अति आवश्यक है कि सरकार, प्राइवेट संस्थाओं के कर्मचारियों के लिए सरकारी नीतियों के अनुसार विचार करना शुरू करें। कुछ ऐसे नियम व कानून बनाए जाएँ, जिससे कर्मचारियों के बीच, पद और तनख्वाह को लेकर भेदभाव कम करने में मदद मिले।

ऐसे कई पहलु हो सकते हैं, जिन पर रणनीतिक रूप से कार्य कर, सरकारी नौकरी की चाह में एकतरफा भाग रही भीड़ को, प्राइवेट संस्थाओं की मनमौजी पर लगाम कसते हुए सही दिशा दी जा सकती है।

17. सीएसआर का फंड 2% से बढ़ाकर 5% करना

कॉर्पोरेट सोशल रेस्पॉन्सिबिलिटी के तहत देश के बड़े और जाने-माने उद्योग ग्रुप तथा उद्योगपति, समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रहे हैं, लेकिन महामारी के बाद, देश ने कुछ नई चुनौतियाँ देखी हैं, और जमीनी स्तर पर परिस्थितियाँ काफी कठिन नजर आई हैं। ऐसे में प्राइवेट प्लेयर्स को अपनी बड़ी और भारी भूमिका निभाना है।

मौजूदा संरचना में सीएसआर के लिए उद्योग घराने 3 साल के एवरेज प्रॉफिट का दो प्रतिशत हिस्सा, सीएसआर फंड के रूप में लगाते हैं, जिसे तीन फीसदी बढ़ाकर कुल पाँच फीसदी किया जा सकता है। जिससे सरकार के ऊपर से भार भी कम होगा, और कुछ अनछुए हिस्सों, मुद्दों और जरूरतों को उजागर कर, उन्हें बेहतरी की तरफ मोड़ा जा सकता है।

ये 17 मुद्दे, मैं ऐसा मानता हूँ कि बहुत गंभीर हैं, जिन्हें हमारे देश में सतत भारत के विकास के लिए लागू किया जाना और सही मायनों में इन सभी मुद्दों से उबरना आधुनिक समय की माँग है।

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