जीवन की आपाधापी में खुद के लिए चंद मिनटों की मोहलत बमुश्किल ही मिली.. एक तरफ दुनियादारी का शौक और दूसरी तरफ जिम्मेदारियों का बोझ, ये दोनों किसी गाड़ी के पहिए के से मेरे जीवन में साथ-साथ ही चले, न ही एक आगे और न ही एक पीछे, बिल्कुल साथ-साथ..
शिकायक करूँ भी तो किससे, सिवाए खुद के? इसलिए शिकायत मुझे वक्त और ज़माने से नहीं, खुद से है कि जिंदगी हमेशा ही मेरे सामने थी और मैं था कि हमेशा ही दुनियादारी में लगा रहा.. इतना ही नहीं, मैं खुद को बदल अब भी नहीं पा रहा हूँ, महसूस बेशक है मुझे कि मेरे लिए नहीं जी रहा मैं, जी रहा हूँ तो सिर्फ दुनिया के लिए, लेकिन सच कहूँ, तो दिल को सुकून लोगों का भला सोचने और जितना मुझसे हो सके, दूसरों के काम आने में ही मिलता है। मैं इस दुनियादारी को अच्छा ही मानता हूँ और दूसरों का खुद से ज्यादा ध्यान रखने में विश्वास करता हूँ, यह बात और है कि मुझे कभी किसी से उतना ध्यान खुद के लिए नहीं मिला, जितना कि मैं सभी का रखता आया हूँ।
एक यही बात है, जो दिल में टीस की तरह चुभती है। दरअसल मैं चाहता हूँ कि मुझसे प्रेरित होकर ही सही, लेकिन नई पीढ़ी में अपने आसपास के लोगों का ख्याल रखने की आदत आए, वे कोशिश करें कि जरुरत पड़ने पर वे भी किसी के काम आएँ, दूसरों को समझने की कोशिश करें, साथ ही जिस भी तरह से हो सके, लोगों की मदद करने की प्रवृत्ति अपनाएँ।
मेरी कोशिश हमेशा से यही रही है कि मेरे सामने कोई भी व्यक्ति ऐसा न हो, जो किसी उलझन में हो। मैं कोशिश करता हूँ कि सामने वाला व्यक्ति जब भी असहज महसूस करे, तब मेरे साथ बात करके अपने मन के भार को हल्का करे, ताकि उसके मन में कोई वेदना न रहे और मैं उसे बाहर निकलने के आसान मार्ग बता सकूँ। इसका सबसे बड़ा कारण है कि व्यक्ति जब भी किसी समस्या में होता है, तो कई बार समाधान उसके सामने होने के बावजूद भी वह उसे देख नहीं पाता, उस स्थिति से निपटने के लिए कोई तो ऐसा हो, जो कंधे पर हाथ रखकर सिर्फ इतना कह दे कि चिंता मत कर, मैं तेरे साथ हूँ।
मेरी इस बात को वही समझ सकता है, जो इस स्थिति से गुजरा है। और फिर इस बात से भी तो किनारा नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति की असली पहचान मुश्किल समय में ही होती है। यदि किसी के काम नहीं आया, तो फिर मेरे जीवन का मोल ही क्या है, ऐसा मैं सोचता हूँ।
लेकिन आज की नई पीढ़ी में ‘कर भला तो हो भला’ की यह आदत विलुप्त होती जा रही है। मुझे शिकायत है खुद से, कि मैं लाख कोशिशों के बाद भी नई पीढ़ी में यह आदत लाने में पूरी तरह सफल न हो सका, शायद लोग सच ही कहते हैं कि एक अकेला दुनिया नहीं चला चलता। मेरे जैसे और भी लाखों लोगों का योगदान लगेगा युवा पीढ़ी में यह आदतन बदलाव लाने में।
लोगों के जीवन में कई उलझनें होती हैं, जरुरी नहीं है कि आप उन्हें पैसों से ही संभालें, हमदर्दी ही काफी है, जो आप दूसरों के प्रति रखते हैं। यकीन मानिए, यदि आप में दूसरों का हमदर्द बनने का हुनर है न, तो गर्व कीजिए खुद पर कि आप एक ऐसे व्यक्ति हैं, जिसे जीवन के बाद भी लोग याद करेंगे। पैसा कभी साथ नहीं जाता, साथ जाते हैं, तो हमारे कर्म और दूसरों के प्रति हमारा रवैया।
“मैंने फोन नहीं किया तो तुमने भी तो नहीं किया”, यह एक पंक्ति हमें आज के व्यस्त ज़माने में सुनने को मिल ही जाती है। बेशक हम सभी के पास अब वैसा समय नहीं होता, जैसा पहले होता था, जब हम हफ्ते दो हफ्ते में फोन पर अपनों से बात कर लिया करते थे या फिर एक ही शहर में रहने की स्थिति में उनके घर जाकर मिल भी आया करते थे। लेकिन उपरोक्त पंक्ति अपने मुँह से कहना सरासर गलत है। आप अलग बनें, आगे रहकर लोगों से जुड़ें और उन्हें एहसास कराएँ कि कोई और हो न हो, आप उनके साथ हैं। उनके हाल-चाल लेते रहें, उन्होंने लम्बे समय से नहीं किया तो क्या हुआ, आप निश्चित अंतराल में अपनों से किसी न किसी माध्यम से जुड़े रहें, वो किस समस्या से गुजर रहे हैं, यह जानने की कोशिश करें, उनके हमदर्द बनें, उनकी समस्या का समाधान उन्हें दें, यदि आप यह सब कर पाने में सक्षम नहीं हैं, तब करें शिकायत खुद से..