अब तो चुपचाप शाम आती है, पहले चिड़ियों के शोर हुआ करते थे।
मोहम्मद अल्वी का यह शेर लेख के अंत में समझ आएगा कि यहाँ क्यों इस्तेमाल किया गया है।
भारत देश इन दिनों हिन्दू मुस्लिम की नापाक जंग के एक लंबे दौर से गुजर रहा है। सीएए-एनआरसी पर केंद्र सरकार के फैसले के बाद देश दो हिस्सों में बट गया है, एक इसके पक्ष में और एक इसके खिलाफ। टीवी डिबेट्स से लेकर चाय के टपरे तक, हर जगह हिन्दू मुस्लिम, मंदिर मस्जिद और शाहीन बाग ट्रेंड में बना हुआ है। लेकिन इस देशव्यापी गर्मागर्मी के बीच भारत में रहने वाले पक्षियों को लेकर एक दर्दनाक खबर सामने आई है, जिस ओर कम ही न्यूज़ प्लेटफॉर्म्स और राजनेताओं का ध्यान गया है।
कुछ रोज पहले, गांधीनगर में वन्य जीवों की प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर आयोजित 13वें सीओपी सम्मेलन में ‘स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स रिपोर्ट: 2020’ सामने आई, जिसमें दावा किया गया है कि भारत में पक्षियों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। स्थिति की दयनीयता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध पश्चिमी घाटों पर साल 2000 से पक्षियों की संख्या में 75 प्रतिशत तक की कमी आई है।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि गिद्ध, छोटे पंजों वाली स्नेक ईगल, बड़ी कोयल, सामान्य ग्रीन शैंक जैसे पक्षी लगभग विलुप्त होने की कगार पहुँच गए हैं। वहीं भारत में 79 प्रतिशत पक्षियों की संख्या घटी है।
अब जब रिपोर्ट में कई प्रजातियों के विलुप्त होने की बात कही गई है, तो सवाल उठना भी लाजमी है, और यह सवाल किसी एक पर नहीं बल्कि हम सभी पर उठता है। हम सभी मतलब, जीव वैज्ञानिकों से लेकर सरकारी तंत्रों और आम इंसानों तक, जिनकी सुबह चिड़ियों की चहचहाट से होती है। गर्मियां शुरू होने को हैं, और आसमान में उड़ते परिंदों की मुश्किलें भी बढ़ने वाली हैं।
पेट में भूख और कंठ में प्यास लेकर शहरों की छत के चक्कर लगाने वाले पक्षी हों या नदी, नालों और जंगलों में बसर करने वाले बेजुबान, इन दिनों अपनी ही अनुकूल जगह पर घुटन महसूस कर रहे हैं। लेकिन 137 करोड़ की आबादी में सिर्फ कुछ फीसदी लोग ही ऐसे हैं, जो निजी तौर पर पक्षियों के संरक्षण में योगदान दे रहे हैं, और यह अपने आप में एक चिंता का विषय है।
हाल में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, सीओपी-13 में खास बात यह रही कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से विषय को सम्बोधित किया था। इसलिए यह कहना भी गलत होगा कि इस बात की जानकारी जिम्मेदार नेताओं तथा सरकारी तंत्रों को नहीं है।
फिर ऐसी रिपोर्ट्स सामने आने के बाद भी हम भारत में सालों से रह रहे और प्रवासी पक्षियों को लेकर कितने गंभीर हैं, इस पर भी विचार किया जाना जरूरी है। लगातार घटती पक्षियों की संख्या से जीव वैज्ञानिक चिंतित तो हैं लेकिन इसकी मुख्य वजह और इसे रोकने के प्रभावी तरीके शायद ही किसी के पास है। साथ ही पक्षियों की इस दयनीय स्थिति को लेकर सरकारी महकमा कितना गंभीर है, यह भी एक शोध का ही विषय है।
अंत में इतना ही कहा जा सकता है कि शायद हमें आजादी से चली आ रही हिन्दू मुस्लिम लड़ाई को अब पीछे छोड़ देना चाहिए, और बेजुबानों की घटती संख्या पर गंभीरता अपनाना चाहिए, नहीं तो पहली पंक्ति में इस्तेमाल किया गया मोहम्मद अल्वी का शेर हमारी आने वाली पीढ़ियों को कड़वा सच बनकर सताएगा और इसके लिए इतिहास हमें कभी माफ नहीं कर पाएगा।